गंभीर घाव वाली टीवी बहसों पर रोक जरूरी

ललित गर्ग

समाज एवं राष्ट्र-निर्माण की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाने वाला मीडिया विशेषतः इलेक्ट्रोनिक मीडिया आजकल बहस के ऐसे अखाडे़ बन गये हैं, जहां राष्ट्र-विरोधी, नफरत एवं द्वेषभरी चर्चाओं ने समाज एवं राष्ट्र में जहर घोलने का काम किया है। युगयात्रा की आवाज बनने वाले टेलीविजन चैनलों का प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ा है, वैसे-वैसे इस जिम्मेदारी को लेकर कोताही, लापरवाही एवं गैर-जिम्मेदाराने रवैये बढ़े हैं और अपने चैनल को अधिक आक्रामक बनाने के चलते बहसों का स्तर दिन-ब-दिन गिरता जा रहा है। यह एक राष्ट्रीय चिन्ता का विषय बन रहा है, सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे टीवी चैनलों के काम करने के तरीकों लेकर गहरी एवं गंभीर चिंता जताई और कहा कि घृणा भाषण एक खतरा बन गया है, उसे रोकना होगा। निश्चित ही मन की भड़ास निकालने, टीआरपी के लिए समाज में विभाजनकारी और हिंसक प्रवृत्ति पैदा करने वाले इन मंचों को नियंत्रित किया जाना जरूरी है।
इस तरह की बेतुकी बहसों, नफरत एवं द्वेषभरी चर्चाओं में सचाई गुम हो जाती है। यह बयानबाजी सिर्फ एक ओर की होती तो ऐसे बेतुक एवं अशालीन बयानों की गर्माहट अधिक देर तक नहीं रहती, लेकिन इससे बनने वाले घाव राष्ट्र की चेतना को आहत करते हैं, नुकसान पहुंचाते हैं। किसी की तलवार के आघात इतने तीव्र नहीं होते जितने कि इन अतिश्योक्तिपूर्ण राजनीतिक बयानों एवं कडवे बोलो के होते हैं। कोई भी क्रांति या राजनीतिक बदलाव इन अटपटे वचनों एवं नफरतों से नहीं हुआ करती। हमारे देश के कुछ टीवी न्यूज चैनल और उनके एंकर कभी कभी इतने क्रांतिकारी हो जाते हैं कि वे खुद ही पुलिस बन जाते है, खुद ही वकीन और खुद ही जज बन जाते हैं। लेकिन अब कोर्ट से जुड़े हुए मामले पर न्यूज रूम में चर्चा करना ही एंकरों को भारी पड़ सकता है।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि आपराधिक मुकदमों से संबंधित मामलों पर टीवी चैनलों पर बहस होना “आपराधिक न्याय में हस्तक्षेप” है। जस्टिस यूयू ललित और पीएस नरसिम्हा की बेंच ने कहा अपराध से संबंधित सभी मामले और कोई भी विशेष बात जो सबूत हो सकती है, ये कानून की अदालत द्वारा निपटायी जानी चाहिए, न कि टीवी चैनल के माध्यम से।” यह पहला मौका नहीं है, जब हेट स्पीच को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने टीवी न्यूज चैनलों पर निशाना साधा है। पिछले साल दिसंबर में भी उसने इन चैनलों की खुली चर्चाओं को हेट स्पीच फैलाने वाला सबसे बड़ा जरिया बताया था और नियमन के दिशा-निर्देश तैयार करने पर जोर दिया था। जस्टिस डी.वाइ. चंद्रचूड़ ने 2020 में सुदर्शन न्यूज चैनल के यूपीएससी जिहाद कार्यक्रम पर रोक लगाई थी। केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर मुख्यधारा के टीवी न्यूज चैनलों को मीडिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं, पर मंत्रालय का कहना है कि मौजूदा नियमों के तहत कोई कार्यक्रम प्रसारित होने से पहले न तो उसकी स्क्रिप्ट मांगी जा सकती है, न ही प्रसारण पर रोक लगाई जा सकती है।
टीवी चैनलों पर बहस को देखते-सुनते आजकल एक सवाल अक्सर मन में पैदा होता है कि किसी मुद्दे पर चर्चा या बहस के दौरान प्रस्तोता और पैनल विशेषज्ञों आदि का धर्म क्या हो? इन बहसों का उद्देश्य क्या हो? ये बहसें कैसी हों, जो एक सकारात्मक परिवेश बनाएं और किसी सार्थक परिणाम तक पहुंचें। बहस को पुरातन संदर्भो में देखें तो यह किसी विषय या विवाद के दो या अधिक विद्वानों के बीच चर्चा या शास्त्रार्थ की श्रेणी में आती है। लेकिन आधुनिक टीवी चैनलों के शास्त्रार्थ यानी बहसों में हमारे टीवी चैनल एवं एंकर को एक बीमारी होगई है और वह बीमारी यह है कि उसके एंकर खुद को खुदा समझने लगे है। दुखद है कि समय के साथ शक्तिशाली होते टीवी चैनलों में प्रभाव डालने की क्षमता के समांतर अपेक्षित गंभीरता, शालीनता और संवेदनशीलता की कमी होती गई है। इसलिए इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है, उसे आईना मान कर सुधार पर गौर करने की जरूरत है। क्योंकि इन दृश्य माध्यमों के मंचों पर पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों और राष्ट्र-निर्माण की जिम्मेदारियों की अनदेखी करके नफरत केंद्रित विचारों एवं देश तोड़क स्थितियों को जिस तरह जगह मिल रही है, वह चिंताजनक है।
मन्दिर हो या चुनाव, राजनेता हो या धर्मगुरु, गरीबी हो या अशिक्षा, बेरोजगारी हो या महंगाई, निर्माण कार्य हो या नवीन योजनाएं- इन मुद्दों पर बहस के बहाने नफरत एवं विद्वेषभरे भाषणों को हवा देना कई टीवी चैनलों के एंकरों की आदत बन गई है। जो टीवी चैनल जितनी आक्रामक एवं मसालेदार बहसों को कराने में माहिर होते है, वे उतने ही ज्यादा लोकप्रिय माने जाते हैं और इन बहसों एवं चर्चाओं को कराने वाले एंकर उतने ही लोकप्रिय। ऐसे एंकरों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को हाल ही सख्त टिप्पणी करनी पड़ी। शीर्ष अदालत ने सवाल किया – यदि टीवी न्यूज एंकर हेट स्पीच की समस्या का हिस्सा हैं तो उन्हें हटा क्यों नहीं दिया जाता? कोर्ट की टिप्पणी थी, ‘टीवी चैनल और उसके एंकर शक्तिशाली विजुअल मीडियम के जरिए टीआरपी के लिए समाज में विभाजनकारी और हिंसक प्रवृत्ति पैदा करने वाला कुछ खास एजेंडा बेचने का औजार बन गए हैं।’ धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में नफरत फैलाने वाले न्यूज चैनलों को कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। ऐसे चैनलों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
टीवी का आम दर्शक अब इन बहसों से ऊब चुका है। लाइव बहस में निष्पक्षता की जिम्मेदारी एंकर पर होती है। कुछ लोगों को बोलने का मौका नहीं देना पक्षपात है। लेकिन यहां टीवी चैनल एवं उनके एंकर की ही दादागिरी चलती हैं और वे किन्हीं के बयानों को सैंसर कर देते है तो किन्हीं के बयानों को बढ़-चढ़ कर दिखाते हैं। सौहार्द एवं सद्भावना को बाधित करने वाले नफरती या भड़काऊ भाषणों को लेकर अदालत की चिंता समझी जा सकती है। वैसे तो राजनीतिक दलों को भी इनकी गंभीरता को समझते हुए अपने प्रवक्ताओं पर ऐसी तीखी, विनाशकारी बहस से बचने की मर्यादाएं एवं सीमाएं तय करनी चाहिए। क्योंकि यह स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक अहम पहलू है। लेकिन अगर किसी बयान को सनसनी एवं उग्र बना कर पेश करने से समाज और देश में सौहार्द एवं राष्ट्रीयता के उलट नफरत एवं देश तोड़ने का माहौल बनता है तो ऐसी अभिव्यक्ति पर रोक लगायी जानी चाहिए। अदालत ने कई स्पष्ट टिप्पणियां कीं जो एक तरह से दृश्य माध्यमों के प्रभाव के मद्देनजर उसकी भूमिका को कठघरे में खड़ा करती हैं।
यह सुस्पष्ट हो चुका है कि इन टीवी चैनल की बहसों से समाज एवं राष्ट्र का हित सधता हो, प्रतीत नहीं होता। पिछले कुछ समय से टीवी चैनलों पर होने वाली बहसें किन्हीं सार्थक मुद्दे को स्पष्ट करने और हल की राह निकालने के बजाय महज सनसनी फैलाने, समस्या को अधिक उलझाने और संकीर्ण आग्रहों के आधार पर ध्रुवीकरण करने का वाहक बनती जा रही हैं। विडंबना यह है कि ऐसे कार्यक्रमों के लिए किसी संचालक या संबंधित टीवी चैनल के प्रबंधकों की जिम्मेदारी अभी तक कानूनों में तय नहीं है। लेकिन बेतुकी बहसों की उपमा तो ‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’ से ही दी जा सकती है। वे उस बात की तरह होते हैं, जिसमें भाषा की शालीनता एवं अर्थवत्ता का कम से कम इस्तेमाल किया जाता है। तीर की तरह तीखी, मारक एवं विनाशक के साथ-साथ जहर उडेलने़ वाली बात दूर तलक जाती है और गहराई से मार करती है। नेता एवं प्रवक्ताओं के मुंह से निकल कर उनके बयान जैसे ही सार्वजनिक दायरे में गूंजते हैं, उनकी विनाशक सोच समाज को तोड़ने का असरकारक काम करती है।
चैनलों की नैतिकता, मर्यादाओं और परिचालन के मामलों पर प्रमुख न्यूज चैनलों ने न्यूज ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन और न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी का गठन किया था। हेट स्पीच पर लगाम कसने की दिशा में दोनों संगठनों ने जो कदम उठाए, वे बेअसर एवं अप्रभावी रहे। अदालत ने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि प्रिंट मीडिया के विपरीत समाचार चैनलों के लिए कोई भारतीय प्रेस परिषद नहीं है। नफरत फैलाने वाली सामग्री के प्रसारण पर रोक के लिए सख्त गाइडलाइन के साथ सजग निगरानी तंत्र भी जरूरी है।

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