शनिवार, 10 दिसंबर, 2022 को कर्नाटक की भाजपा सरकार ने घोषणा की कि उसने ‘सलाम आरती’ का नाम बदलने का फैसला किया है, जो 18वीं शताब्दी के इस्लामिक अत्याचारी टीपू सुल्तान द्वारा शुरू की गई एक रस्म थी। शशिकला जोले ने स्पष्ट किया कि केवल नाम बदले जाएंगे और रस्म हमेशा की तरह जारी रहेगा। मंत्री शशिकला जोले ने कहा, “इन फारसी नामों को बदलना और मंगला आरती नमस्कार या आरती नमस्कार जैसे पारंपरिक संस्कृत नाम बनाए रखने के प्रस्ताव और मांगें थे। इतिहास को देखें तो हम वही पीछे हटेंगे जो पहले चलन में था।”
विश्व इतिहास में भारतीय संस्कृति का वही स्थान और महत्व है जो संख्या द्वीपों के सम्मुख सूर्य का है।” भारतीय संस्कृति अन्य विविधताओं से सर्वथा विशेषण और परिक्रमा है। अनेक देशों की संस्कृति समय-समय पर नष्ट हो रही है, भारतीय संस्कृति आज भी अपने अस्तित्व में है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति के इतिहास में सबसे प्राचीन भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता के कई पाश्चात्य विद्वानों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और कहा है।
यह निर्णय हिंदुत्ववादी और अन्य अंग की मांगा पर लिया गया। इन अंग ने राज्य सरकार से टीपू सुलतान के नाम पर होना वाले अनुष्ठानों को खत्म करना की मांगा की था, जिसमें सलाम आरती भी शामिल था। इससे स्पष्ट है कि जनता की मांगा पूरी कर हो रही है है कर्णाटक की सरकार सरकार।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल दृढ़ की प्राचीर से दिया पंच प्राण में से एक गुलामी के सभी प्रतीक चिह्नों के खत्मे का नहीं किया था। ताकि आज़ादी के अमृतकाल में विकसित भारत की या कदम बढ़ा हुआ रहा है देश स्वाभिमानी भारत बन विशेषण। मोदी सरकार ने यह दिशा में तेजी से से कदम बढ़ाए हैं। ब्रिटिश काल के कई अनुलेख के खत्मे से लेकर राजपथ से कर्तव्यनिष्ठा पथ तक।
“दी इंडियन पीनल कोड” की पांडुलिपि भगवान मैकॉले ने तैयार की थी। अंग्रेजी को भारत की सरकारी भाषा और शिक्षा का माध्यम और यूरोपीय साहित्य, दर्शन और विज्ञान को भारतीय शिक्षा का लक्ष्य बनाने में इनका बड़ा हाथ था। भारत मे नौकर करने का काम खोला है जिसे हम स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय कहते हैं। ये आज भी हमारे समाज में हर साल लाखों की संख्या में देश में नौकर करते हैं जिसके कारण देश में नौकरी की सबसे बड़ी समस्या हुई है जो आज पूरे देश में है। मे महामारी की तरह फैल रहा है। भारत की बेरोजगारी की घोषणा भारत की राजनीति को जाती है भारत में इस समय बेरोजगारी, आर्थिक व्यवस्था चरम सीमा पर पहुंचती हैं भारत की समस्या पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है सबसे बड़ी समस्या ये है कि इनहोने भारत की भाषा हिंदी को ही बदलने के सरकारी जगहों पर अंग्रेजी को लागू कर दिया जो अब भी हर जगह मौजूद हैं।
यह सही समय है जब हम गुलामी के प्रतीक चिह्नों से सचेत होकर देश को मानसिक गुलामी की दासता से मुक्त करें, ताकि नई पीढ़ी एक स्वाभिमानी और समृद्ध राष्ट्र में सांस ले सके। समग्रता में देखें तो 2014 से अब तक मोदी सरकार ने लगभग अंग्रेजी हुकूमत की याद पाने वाली सैकड़ों जिलों को तिलांजलि दी है।
राजपथ का आदेश इंग्लैंड के महाराज जार्ज पंचम को सम्मान में दिया गया था। गुलामी के उस प्रतीक को हटाना अनिवार्य था। मोदी सरकार ने यहां पर सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा लगाने का फैसला किया, जिनमें से स्वतंत्र भारत के कथित इतिहासकारों ने उन्हें स्थान नहीं दिया, जिसके वे सर्वथा सुपात्र थे। इसी प्रकार नौ सेना के नए ध्वज से ब्रिटिश नौसेना के उस प्रतीक को हटा दिया गया, जो पता नहीं किन कारणों से इन 75 वर्षों में हमारी सामुद्रिक सेना के ध्वज से चिपका रहा। यह उचित ही है कि अब नौसेना के ध्वज में स्वाभिमान के पर्याय छत्रपति शिवाजी के प्रतीक की छाप अब आ रही है। इससे पहले गणतंत्र दिवस पर बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम में कई वर्षों से बजाई जाने वाली अंग्रेजी ट्यून के बजाय भारतता से ओटप्रोट ट्यून्स को दिया गया।
वही शक्कर लेपित कुत्सित प्रयास इस्लामिक अत्याचारी टीपू ने किया था। इसी कारण वर्तमान में भी इस्लामिक अत्याचारी टीपू के भक्त राजनीतिक कारणों से कर्णाटक में मौजूद हैं। कोल्लूर में मोकाम्बिका मंदिर के पुजारी के अनुसार, टीपू ने जो किया वह धर्म या लोगों के लिए नहीं बल्कि खुद के लिए किया। पुजारी का कहना है, ‘जब टीपू सुल्तान मैसूर क्षेत्र पर शासन कर रहा था तो वह इस मंदिर को नष्ट करने आया था लेकिन दैवीय शक्तियों के कारण प्रवेश नहीं कर सका। जब वे देवता को प्रणाम करने आए, तो आरती की जा रही थी, उन्होंने आरती का नाम ‘सलाम आरती’ रखा। उस दिन से टीपू के सुल्तान के मंदिर में आने की याद में आरती को सलाम किया जाता है।’
कर्नाटक के मंदिरों में दासता का प्रतीक आरती की जगह अब आरती मैसूर के पूर्व शासक टीपू सुल्तान कई दावों के केंद्र में हैं। वाम-उदारवादी टुकड़े टुकड़े गैंग और मुस्लिम तुष्टिकरण और वोट बैंक पॉलिटिक्स ने मार्क्सवादी विकृतियों के साथ-साथ अत्याचारी शासक का महिमामंडन किया है। बार-बार, सुल्तान को एक बहादुर और क्रूर योद्धा के साथ-साथ एक चक्र, समावेशी, कार्य नेता के रूप में चित्रित किया गया है। ‘एक योद्धा जो कभी कोई युद्ध नहीं हारा’। यह सही इतिहास नहीं है। टीपू एक तानाशाह और धार्मिक उन्मादी से ज्यादा कुछ नहीं था, जो जबरदस्ती धर्मांतरण और नरसंहार के लिए जाना जाता है। खैर, इतने दशकों के बाद यह कैसे मायने रखता है? यह करता है, क्योंकि इतिहास किसी भी देश के राजनीतिक पाठ्यक्रम को निर्धारित करता है और इस प्रकार राष्ट्र के भविष्य को प्रभावित करता है। और भारत के साथ भी यही हो रहा है।
टीपू सुलतान का विरोध करना के हाँ हैं प्रमुख आधार
विरोध करने के ये हैं प्रमुख
• टीपू स्कीम नहीं, बल्कि एक अहिष्णु और निरंकुश शासक था। 2015 में आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य में भी टीपू सुल्तान की जयंती के विरोध में एक लेख छपा था, जिसमें टीपू को दक्षिण का औरंगजेब बताया गया था।
• टीपू सुल्तान के संबंध में प्रसिद्ध लेखक चिदानंद मूर्ति कहते हैं, ‘वो बेहद चालाक शासक था। उसने दिखावे के लिए मैसूर में हिंदू पर अत्याचार नहीं किया, लेकिन कोस्टल क्षेत्र जैसे ग्रंथबार में हिंदुओं पर अत्यधिक अत्याचार किए।’
ब्रिटिश सरकार के अधिकारी और लेखक विलियम लोगान ने अपनी किताब ‘मालाबार मैनुअल’ में लिखा है कि टीपू सुल्तान ने अपने 30,000 सैनिकों के दल के साथ कालीकट में बर्बाद मचाई थी। टीपू सुल्तान ने पुरुषों और महिलाओं को सरेआम फांसी दी और इस दौरान उनके बच्चों को भी उनके गले में बांध कर लटका दिया गया। इस किताब में विलियम ने टीपू सुल्तान पर मंदिर, चर्च तोड़ने और जबरन शादी जैसे कई आरोप लगाए हैं।
• केट ब्रिटलबैंक की पुस्तक ‘लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान’ में कहा गया है कि सुल्तान ने दुनियाबार क्षेत्र में एक लाख से अधिक हिंदुओं और 70,000 से अधिक ईसाइयों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया। जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया, उन्हें मजबूरी में अपने-अपने बच्चों को शिक्षा के लिए भी इस्लाम के अनुसार पूछताछ करनी पड़ी। इनमें से कई लोग बाद में टीपू सुल्तान की सेना में शामिल हो गए।
• एकेडमिक माइकल सोराक के अनुसार इस ज़बरदस्त टीपू की छवि कट्टर मुगल बादशाह के तौर पर पेश करने के लिए उन तथ्यों को आधार बनाया गया, जो 18वीं सदी में ब्रिटिश अधिकारी टीपू सुल्तान के लिए इस्तेमाल करते थे।
• राकेश सिन्हा ने नवंबर 2018 में कहा था कि ‘टीपू ने अपने शासन का प्रयोग हिंदू का धर्म बदलने के लिए किया और यही उनका मिशन था। इसके साथ ही उन्होंने हिंदुओं के मंदिरों को तोड़ा। हिंदू महिलाओं ने इज्जत से झटके मारे और ईसाइयों के चर्चों पर हमले किए। इस वजह से हम ये मानते हैं कि उनकी जयंती पर कार्यक्रम आयोजित करने से युवाओं में गलत संदेश जाता है।’