जनवरी 1896 में छः महीने कीहापुरुषों का जीवन खतरों के बीच से निकलता हुआ ही पुरुषार्थ की दुनिया में अपना नाम रोशन करता है। लाखों लोगों के दुख दर्द को आत्मसात करते और समाधान का रास्ता बनाते हुए जो दर्शन प्राप्त होता है वह उनके जीवन पर खतरों की तरह मंडराता रहता है। स्वार्थियों की घृणा, उनका विद्वेष हमेशा ही ऐसे महापुरुषों से चुनौती महसूस करता है ।महात्मा गांधी जिन्हें आगे चलकर राष्ट्रपिता कहा गया, भी अपवाद नहीं थे। उनके जीवन पर खतरे केवल दम्भी गोरों के ही नहीं थे, बल्कि कट्टरवादी हिंदूओं के भी थे। वे लोग उनके उदारवादी अहिंसक दर्शन को नफरत की नजर से देखते थे। ये लोग खतरनाक इरादों के साथ गांधी पर हमला करने की ताक में रहते थे।
भारत यात्रा के बाद जब गांधीजी अफ्रीका लौटे तो अंग्रेजों ने अफवाह फैलायी ।इसे तोड़ मरोड़कर नेटाल के अखबारों ने छापा ।लिखा कि गांधीजी अपने साथ सैकड़ों भारतीयों को दो जहाजों में गोरों का मुकाबला करने के लिये आफ्रीका ला रहे हैं।इस अफवाह को फैलाने के पीछे नटाल के कार्यकारी प्रधानमंत्री अटार्नी जनरल एसक्रोब का हाथ था। वह भारतीयों से नफरत करता था।इसीलिए उसने अफवाह फैलाने वालों का सहयोग किया। भारतीयों के कारण शहर में प्लेग फैल जाएगा, इस अफवाह के साथ उन जहाजों में आए भारतीय यात्रियों को जहाज से उतरने की अनुमति नहीं दी गई ।जबकि जहाज में सवार लोग अफ्रीका के ही वैध नागरिक थे जो अपने घरों को लौट रहे थे ।लेकिन लगभग चार सप्ताह तक उत्तेजित भीड़ ने जहाजों को घेर रखा था कड़कड़ाती ठंड में भी सारे लोग जहाज में बैठे रहे। छब्बीस- दिन बाद जब एसक्राब को लगा कि हालात उसके काबू में नहीं रहेंगे तो उसने गांधी से रात के अंधेरे में जहाज से उतरने के लिए आग्रह किया और कहा कि आपकी जान को खतरा है। किंतु गांधी ने कहा कि मेरा कोई दुश्मन नहीं है और मैं दिन के उजाले में जहाज से उतरूंगा। वे उजाले में ही जहाज से उतरे ।लोगों ने उन्हें पहचाना और गांधी जी और उनके साथियों पर पत्थर बरसने शुरू हो गए ।संकट की इस घड़ी में रिक्शावाला जिसमें सवार गांधी पर हमला हुआ, उत्तेजित भीड़ देख कर भाग गया ।इस भगदड़ में गांधीजी साथियों से बिछड़ गए और गोरों की भीड़ उन पर टूट पड़ी। गांधीजी बेहोश हो गए गांधी पर यह हमला अफवाह और उकसाये गए माब लिंचिंग करने वाले समूह का हमला था। लेकिन गांधी इस लिंचिंग के बावजूद बच गए।उनके सहयोगियों ने उनसे पूछा कि उन्होने उजाले में उतरने का खतरा क्यों उठाया ।तब गांधी ने कहा कि मेरी मां और घर की एक सेविका ने उन्हें कहा था कि विपत्ति में राम का स्मरण सब कष्टों को दूर करता है।तबसे वे मानते थे कि जिस प्रभु राम ने उन्हें सत्कार्य करने की प्रेरणा दी वही रक्षा भी करेगा। आज भी समाज में सत्य की चर्चा करने पर माब लिंचिंग का भय नागरिकों के दिमाग में कौंधता रहता है।
मृत्यू से गांधी का यह पहला सामना था जहां निर्भीक गांधी ने मौत से भयभीत होने से इंकार कर दिया। आगे जब भारत में उनकी हत्या के जो छः प्रयास हुये,जिनमें से पांच असफल हुए। हिंसा और अपराध अपने औचित्य को सिद्ध करने के लिये अधीर तो होते हैं किंतु अहिंसा शांति और प्रेम उसे बार बार गलत सिद्ध कर देती है। भारत में गांधी पर पहला हमला 1934 में पूना में हुआ। पुणे नगर पालिका में उनका सम्मान समारोह आयोजित किया गया था। समारोह में आते समय उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया। नगर पालिका के मुख्य अधिकारी, पुलिस के दो जवान, और सात अन्य लोग गंभीर रूप से घायल हुए। हत्या की साजिश करने वाले लोग इसलिए चूक गए क्योंकि गांधीजी उस कार में सवार नहीं थे जिस पर बम फेंका गया बम फेंकने वाला व्यक्ति और कोई नहीं आप्टे था।
नारेबाजी की और 22 जुलाई को एक युवक मौका देख कर गांधी की तरफ छुरा लेकर झपटा किंतु भिलारे गुरु जी ने उस युवक को काबू में ले लिया। वह युवक और कोई नहीं नाथूराम गोडसे था। 1944 में ही पंचगनी की विफलता के बाद तीसरी कोशिश सेवाग्राम आश्रम में वर्धा में की गई। गांधीजी अपने काम में निमग्न थे विभाजन की बातें हवा में
थीं। जिन्ना देश को सांप्रदायिक रंग देने में जुटा था। सांप्रदायिक हिंदू भी पीछे नहीं थे। गांधी जी ने मुंबई जाकर जिन्ना से बात करने का एलान किया,तो उन्हें रोकने का प्रयास हुआ।भीड़ में गिरफ्तार एक युवक ग.ल. थत्ते के पास से एक बड़ा छुरा बरामद हुआ।
चौथी कोशिश 1946 में हुई जब हत्यारों की टोली ने यह तय किया कि गांधी को मारने के लिये अगर कुछ दूसरे निर्दोष लोग भी मरें तो कोई बात नहीं ।तब 30 जून 46 को गांधी जिस ट्रेन में मुंबई से पुणे जा रहे थे ।वहां पर ट्रेन पलटने की कोशिश की गई किंतु सावधान ड्राइवर ने इमरजेंसी ब्रेक लगाकर इस दुर्घटना को बचा लिया। इस दुर्घटना के बाद गांधी ने कहा था कि मैं 125 साल जीने की आशा रखता हूं ।तब पुणे से निकलने वाले एक अखबार हिंदू राष्ट्र ने लिखा था कि लेकिन आपको इतने साल जीने कौन देगा? उस अखबार का संपादक कोई और नहीं नाथूराम गोडसे था ।
1948 में पांचवी कोशिश हुई षड़यंत्रों और योजनाओं के दौर चलते रहे। गांधी जी ने जब कहा कि वे दिल्ली छोड़कर नहीं जाएंगे । वे बिरला भवन में ठहरे हुए थे और रोज की तरह उनकी प्रार्थना सभाएं चलती थी तब 20 जनवरी की शाम को भी प्रार्थना सभा पर बम फेंका गया ।बम फेकने वाला मदनलाल पाहवा शरणार्थी था ।निशाना चूक जाने से गांधीजी बच गए ।
छठवीं कोशिश 30 जनवरी 1948 को हुई उसी जगह मदनलाल पाहवा जहां असफल हुआ था गोडसे 10 दिन बाद वहीं सफल हुआ और उसने राष्ट्रपिता के सीने में 3 गोलियां उतार दीं। गांधी की हत्या को लेकर कई तर्क और कहानियां रची गईं। कहा गया कि गांधीजी ₹55 करोड़ पाकिस्तान को देना चाहते थे इसलिए यह हत्या की गई ।यह तर्क अपराध के बाद औचित्य सिद्ध करने रचा गया प्रतीत होता है ।क्योंकि अगर यह सच होता है, तो 1934 में गांधी जी की हत्या का प्रयास क्यों हुआ और उसी टोली ने क्यों किया। अगर यह तर्क सच है तो 1944 में यह प्रयास क्यों हुआ तब तो ना देश की आजादी की कोई सूरत थी और ना ही बंटवारे की त्रासदी तब भी आप्टे, नाथूराम गोडसेऔर थत्ते के जहरीले चाकू गांधी की छाती की तरफ ताक रहे थे। महापुरुष के जीवन में ऐसे ही अवसर आते हैं जब अनुदारवादी जमात उदारवाद की हत्या करती हैं ।वे अनलहक कहने वाले मंसूर को फांसी पर चढ़ा देते हैं वे प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले यीशु को सूली पर लटका देते हैं वे ही बुद्ध की शिक्षाओं को हिंसा से कुचलते हैं। हिंसा इस बात की घोषणा है कि उत्तर समाप्त हो चुके हैं।
गांधी की हत्या के बाद जो अनुत्तरित प्रश्न है, हत्यारों की मानसिकता आज भी उनके उत्तर ढूंढ रही है। अपने अपराध का औचित्य सिद्ध करने के लिए नई-नई कहानियां गढ़ती रही है, लेकिन गांधी की अहिंसा उनकी गहन शांति और उनका गहना प्रभु ‘राम’ आज भी जीवंत हैं और अनंतकाल तक जीवंत रहेंगे।