आदिवासी द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति उम्मीदवारी के निहितार्थ

-ः ललित गर्गः-

द्रौपदी मुर्मू को भारतीय जनता पार्टी ने पन्द्रहवें राष्ट्रपति चुनाव 2022 के लिये अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया है, जिससे उसकी राजनीति कौशल एवं परिपक्वता झलकती है। वह एक आदिवासी बेटी हैं जो सर्वाेच्च संवैधानिक पद पर पहुंचने वाली पहली आदिवासी एवं भारत गणराज्य की दूसरी महिला राष्ट्रपति होंगी, जिससे भारत के लोकतंत्र नयी ताकत मिलेगी, दुनिया के साथ-साथ भारत भी तेजी से बदल रहा है। सर्वव्यापी उथल-पुथल में नयी राजनीतिक दृष्टि, नया राजनीतिक परिवेश आकार ले रहा है, इस दौर में द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से न केवल इस सर्वाेच्च संवैधानिक पद की गरिमा को नया कीर्तिमान प्राप्त होगा, बल्कि राष्ट्रीय अस्तित्व एवं अस्मिता भी मजबूत होगी। क्योंकि उनकी छवि एक सुलझे हुए लोकतांत्रिक परंपराओं की जानकार और मृदुभाषी राजनेता की रही है। उम्मीद है कि देश के संवैधानिक प्रमुख के रूप में उनकी मौजूदगी हर भारतवासी विशेषतः महिलाओं, आदिवासियों को उनके शांत और सुरक्षित जीवन के लिए आश्वस्त करेगी। आदिवासी का दर्द आदिवासी ही महसूस कर सकता है- यानी भोगे हुए यथार्थ का दर्द। मेरी दृष्टि में आज की दुनिया में आदिवासियों और उत्पीड़ितों की आवाज बुलन्द करने वाली सबसे बड़ी महिला नायिका के रूप में द्रौपदी मुर्मू उभर कर सामने आये, तो कोई आश्चर्य नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक मुस्लिम एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति भवन भेजा था और अब नरेंद्र मोदी ने पहले एक दलित रामनाथ कोविंद और फिर अनुसूचित जनजाति की द्रौपदी मुर्मू को कार्यपालिका के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित कर रहे हैं, जो निश्चित ही एक स्वस्थ, आदर्श एवं जागरूक लोकतंत्र की शुभता की आहत है।
द्रौपदी मुर्मू की शानदार एवं ऐतिहासिक राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुति का श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की रणनीति को जाता है। मुर्मू का नामांकन निम्नवर्गीय राजनीति की धार को ही तेज कर रहा है जिस पर भाजपा लंबे समय से काफी मेहनत कर रही है। देशभर के आदिवासी समुदाय की उपेक्षा आजादी के बाद से चर्चा में रही है, कुल मतदाताओं के लगभग 11 प्रतिशत मतदाता एवं कुल मतदान के लगभग 25 प्रतिशत मतदान को प्रभावित करने वाले आदिवासियों के हित एवं कल्याण के लिये मोदी प्रारंभ से सक्रिय रहे हैं। खासकर नरेंद्र मोदी, अमित शाह एवं नड्डा की जोड़ी वाली भाजपा आदिवासी समुदाय को खास तवज्जो दे रही है ताकि खुद को शहरी पार्टी की सीमित पहचान के दायरे से बाहर ला सके। जब राष्ट्रपति उम्मीदवारों के नामों की चर्चा हो रही थी, मेरा ध्यान आदिवासी समुदाय से ही किसी नाम के प्रस्तुति पाने की आशा लगाये था। मुर्मू उनमें शीर्ष पर थी। निश्चित ही राष्ट्रपति भवन में एक आदिवासी महिला के होने से आदिवासी समुदाय के बीच भाजपा की छवि निखरेगी जिसका सीधा असर पश्चिम बंगाल, ओडिशा, झारखंड, गुजरात जैसे राज्यों में देखा जा सकेगा।
नरेन्द्र मोदी अपने निर्णयों से न केवल चौंकाते रहे हैं, आश्चर्यचकित करते रहे हैं, बल्कि चमत्कार घटित करते रहे हैं, द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा करके भी ऐसा ही किया गया है। क्योंकि इस एक तीर से कई निशाने साधे गये हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, ओडिशा में बीजेडी और झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे काफी ताकतवर क्षेत्रीय दलों के होने के कारण भाजपा को इन राज्यों में कड़ा संघर्ष करना पड़ता रहा है। जबकि इन तीनों राज्यों में कांग्रेस का दबदबा नहीं के बराबर है। ऐसे में द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति भवन में भेजकर भाजपा न केवल अपनी लड़ाई आसान कर सकेगी, वरन इन राज्यों में अपनी जगह बनाने में भी कामयाब होगी। गुजराज के चुनाव सामने है, वहां भी बहुतायत में आदिवासी समुदाय हैै, इस निर्णय का प्रभाव वहां भी देखने को मिलेगा। दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिये ईसाई मिशनरियों की तरफ से भारी संख्या में आदिवासियों का धर्मांतरण कराने के खिलाफ उसकी लड़ाई भी अब शायद आसान हो जाए।
भाजपा इन वर्षों में कुशल एवं परिपक्व राजनीति का परिचय देती रही है। उसके नेतृत्व ने रणनीतिक सूझ-बूझ का परिचय देते हुए जातिगत रूप से पिछड़ा पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति को प्रधानमंत्री, पहले दलित पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाकर और अब आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार घोषित करके वर्षों से कायम आदिवासी-दलित-पिछड़ा उभार का अर्थ ही बदल दिया है। इसे वह सामाजिक समरसता का नाम देती आई है, एक आदिवासी राजनेता के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासी एवं पिछडे़ वर्ग के साथ न्याय होगा, ऐसा विश्वास है। यह कहना गलत है कि भारत में राष्ट्रपति केवल एक प्रतीकात्मक महत्व वाला पद है। दलित पृष्ठभूमि से आए राष्ट्रपति के. आर. नारायण ने 2002 में गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा पर सख्त रुख अपनाकर वहां की तत्कालीन राज्य सरकार को कुछ मामलों में अपना रुख बदलने को मजबूर किया था, जबकि पिछड़ा पृष्ठभूमि से आए राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने प्रचंड बहुमत के नशे में चूर राजीव गांधी सरकार को कई मुद्दों पर पसीने छुड़ा दिए थे। रामनाथ कोविंद ने भी समय-समय पर लिये गये अपने निर्णयों से देश के लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की। पूरी संभावना है कि राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू निर्वाचित होगी एवं इस पद की शपथ लेने के बाद वे भी वैसी ही दृढ़ता प्रदर्शित करेंगी और अपने कार्यकाल को देश के लिए यादगार बना देंगी, जो आतंक से मुक्त हो, घोटालों से मुक्त हो, महंगाई से मुक्त हो, साम्प्रदायिकता मुक्त हो। जिसमें दलित, आदिवासी एवं पिछडे़ वर्ग को जीने की एक समतामूलक एवं निष्पक्ष जीवनशैली मिले।
एक साधारण परिवार के शख्स का देश के सर्वाेच्च पद का उम्मीदवार होना भारतीय लोकतंत्र की महिमा का बखान है। इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू का उम्मीदवार बनना एवं निर्वाचित होने की ओर अग्रसर होना उनकी जैसी पृष्ठभूमि वाले करोड़ों लोगों को प्रेरणा प्रदान करने वाला है। इससे भारतीय लोकतंत्र को न केवल और बल मिलेगा, बल्कि उसका यश भी बढ़ेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि द्रौपदी मुर्मू एक साधारण राजनीतिज्ञ रही हैं मगर भारत का यह इतिहास रहा है कि साधारण लोगों ने ही ‘असाधारण’ कार्य किये हैं। द्रौपदी मुर्मू का जन्म 20 जून 1958 को ओडिशा के मयूरगंज जिले के बैदपोसी गांव में हुआ। उनके पिता का नाम बिरांची नारायण टुडु है। वे आदिवासी जातीय समूह, संथाल से संबंध रखती हैं। उन्होंने रामा देवी विमेंस कॉलेज से स्नातक किया। इसके बाद द्रौपदी ने ओडिशा के राज्य सचिवालय से नौकरी की शुरुआत की। उनका विवाह श्याम चरण मुर्मू के साथ हुआ है। 1997 में वे पहली बार नगर पंचायत का चुनाव जीत कर पहली बार स्थानीय पार्षद बनी। तीन साल बाद, उन्हें रायरंगपुर के उसी निर्वाचन क्षेत्र से साल 2000 में पहली बार विधायक और फिर भाजपा-बीजेडी सरकार में दो बार मंत्री बनने का मौका मिला। साल 2015 में उन्हें झारखंड का पहला महिला राज्यपाल बनाया गया। पूर्व राष्ट्रपति वीवी गिरी भी ओडिशा में पैदा हुए थे, लेकिन वह मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले थे।
मुर्मू का जीवन अनेक संकटों एवं संघर्षों का गवाह बना, जो उनके जीवटता को दर्शाती है। जवानी में ही विधवा होने के अलावा दो बेटों की मौत से भी वह नहीं टूटीं। इस दौरान अपनी इकलौती बेटी इतिश्री सहित पूरे परिवार को हौसला देती रहीं। उनकी आंखें तब नम हुईं जब उन्हें झारखंड के राज्यपाल के रूप में शपथ दिलाई जा रही थी। वे धार्मिक संस्कारों की आदर्श एवं साहसी महिला है। उनमें भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों का विशेष प्रभाव है। अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार के नाम की घोषणा से दो दिन पूर्व ही मेरे पुत्र गौरव गर्ग के ससुराल रायरंगपुर की एक गौशाला में गयी और वहां गायों को चारा खिलाते हुए वहां के संचालकों से कहा कि आप मेरे लिये प्रार्थना करना। संभवतः उनको कुछ आशा एवं संभावना थी कि उनके नाम की घोषणा हो सकती है। गौमाता ने उनके दिल की पुकार को सुना।
आज देश में साम्प्रदायिक विद्वेष की आग को जानबूझकर हवा दी जा रही है। तरह-तरह के संकट खड़े किये जा रहे हैं, यह लोकतंत्र की बड़ी विडम्बना है कि यहां सिर गिने जाते हैं, मस्तिष्क नहीं। इसका खामियाजा हमारा लोकतंत्र भुगतता है, भुगतता रहा है। ज्यादा सिर आ रहे हैं, मस्तिष्क नहीं। जाति, धर्म और वर्ग के मुखौटे ज्यादा हैं, मनुष्यता के चेहरे कम। बुद्धि का छलपूर्ण उपयोग कर समीकरण का चक्रव्यूह बना देते हैं, जिससे निकलना अभिमन्यु ने सीखा नहीं। असल में लोकतंत्र को हांकने वाले लोगों को ऐसे प्रशिक्षण की जरूरत है ताकि लोकतंत्र की नयी परिभाषा फिर से लिखी जा सके। इस दृष्टि ने द्रौपदी मुर्मू की भूमिका न केवल महत्वपूर्ण होगी बल्कि निर्णायक भी बनेगी। अतः द्रौपदी मुर्मू के ऊपर यह भार डालकर देश आश्वस्त होना चाहता है कि संविधान का शासन अरुणाचल प्रदेश से लेकर प. बंगाल तक में निर्बाध रूप से चलेगा और देश की सीमाएं पूरी तरह सुरक्षित रहेंगी क्योंकि राष्ट्रपति ही सेनाओं के सुप्रीम कमांडर होते हैं। यह भारत के इतिहास में पहली बार होगा कि किसी आदिवासी महिला को राष्ट्रपति के पद पर बैठाकर उसके पद की गरिमा को बढ़ाया जायेगा।

Keep Up to Date with the Most Important News

By pressing the Subscribe button, you confirm that you have read and are agreeing to our Privacy Policy and Terms of Use