वर्ष 2024 में आम चुनाव एवं इसी वर्ष दिसम्बर में गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां अभी से देखने को मिल रही है, यह पहला अवसर होगा जब आम चुनाव के लिये दो वर्ष पहले ही भारतीय जनता पार्टी एवं विपक्षी दल कमर कस चुके हैं। वैसे तो हर चुनाव नजदीक आते ही केन्द्र में नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ एकजुटता के विपक्षी दलों के प्रयास शुरू हो जाते हैं। अब तक पिछले आठ साल में दर्जनों बार कांग्रेस समेत दूसरे विपक्षी दलों ने एकजुटता के जब-जब प्रयास किए यह कवायद प्रधानमंत्री के चेहरे से आगे फिक्की ही रही, विपक्षी दलों की एकजुटता के प्रयास टांय-टांय फिस ही होते हुए देखे गये हैं। कारण भी साफ है जो भी दल एकता के प्रयासों में भागीदार बनना चाहता है वह अपने नेता को संयुक्त विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में देखना चाहता है। लेकिन इस बार विपक्षी एकता के प्रयासों में कुछ दम नजर आ रहा है। विपक्षी एकता के ये प्रयास उसी स्थिति में ज्यादा कारगर हो सकेंगे जब अपने हित के बजाए ये दल जनहित की बात करेंगे, इनके बीच सर्वसम्मति बनेगी। सिद्धांत के रूप में यह संभव प्रतीत होता है कि मोदी के करिश्माई नेतृत्व में भाजपा सीधी लड़ाई में आसानी से हार सकती है लेकिन राजनीति केवल आंकड़ों की ही बाजीगरी नहीं है, यह बहुत हद तक अनुभूति से जुड़ी लड़ाई है जहां भावनाएं, अहसास, राष्ट्रीयता की भावना, आम आदमी की परेशानी पर वजनदार पहल, चुनावी रणनीति एवं कल्पनाशील वायदे भी कायापलट कर देते हैं।
जबसे बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ा है, वे एक आक्रामक रूप में भाजपा को केवल बिहार ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर पछाड़ने की मुद्रा में आ गये हैं। एक मिशन एवं विजन के साथ वे केन्द्र में भाजपा-सरकार को हटाने के लिये विपक्षी एकजुटता के प्रयास में जुट गये हैं। इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिये वे बिहार से बाहर निकल कर विभिन्न विपक्षी दलों के बीच एकता की संभावनाओं को तलाश रहे हैं। इसी के तहत नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से नई दिल्ली में हुई मुलाकात को भी विपक्षी एकता को लेकर बनने वाली रणनीति से जोड़कर ही देखा जा रहा है। एकता के प्रयासोेें में तस्वीर का दूसरा पहलू हरियाणा में पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती पर आयोजित रैली में पहुंचे नेताओं से साफ नजर आता है। इस रैली में दस राज्यों में विपक्षी दलों के सत्रह बड़े नेताओं को आमंत्रित किया गया था। भले ही आमंत्रित ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे व फारूख अब्दुल्ला सरीखे नेताओं ने रैली से दूरी बनाई हो। ऐसा भी नहीं है कि एकता के प्रयासों को इस तरह की रैलियों में नेताओं के आने या न आने से जोड़कर देखा जाए। लेकिन अब तक के अनुभव बताते हैं कि विपक्षी एकता के शक्ति परीक्षण का माध्यम रैलियां ही होती रही हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने ‘विपक्षी एकता’ बनाने के प्रयासों के तहत बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से मुलाकात की। इस दौरान तीनों नेताओं ने ‘भाजपा मुक्त भारत’ का आह्वान किया। हालांकि, यह पूछे जाने पर कि क्या बिहार के मुख्यमंत्री को विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में माना जा सकता है। इस पर केसीआर ने कहा, ‘ये बातें हम बाद में तय करेंगे।’
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद नीतीश कुमार व लालू यादव आश्वस्त नजर आए कि वे देश में गैर-भाजपा दलों को एकजुट करने में सफलता हासिल कर ही लेंगे। सोनिया गांधी से कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बाद उनकी फिर से मुलाकात होगी। सफल लोकतंत्र के लिये देश में मजबूत विपक्ष होना भी चाहिए, पर जब नेताओं के निजी स्वार्थ व महत्त्वाकांक्षाएं आड़े आती हैं जो ऐसे प्रयास शुरू होने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। इसका कारण अब तक प्रधानमंत्री पद को लेकर ही जाने वाली दावेदारी आडे आती रही है। भले पदयात्रा के जरिए राहुल गांधी को पीएम के चेहरे के रूप में पेश करने में जुटी कांग्रेस के साथ खुद नीतीश कुमार, प. बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के अलावा शरद पवार के नाम भी प्रधानमंत्री के लिए विपक्ष की ओर से चलते हैं, पर कोई साझा सहमति जैसे पहले नहीं हुई, अब हो पाएगी इसके आसार कम ही नजर आते हैं। विपक्षी एकजुटता की असफलता का बड़ा कारण अब तक यही एक पहलु बनता रहा है। बावजूद इसके अधिकांश विपक्षी दलों को इसका अहसास होने लगा है कि उनका राजनीतिक वजूद अब उनकी एकता पर निर्भर करता है। उन्हें डर है कि अगर वे ऐसे ही विभाजित रहे तो जल्द ही राजनैतिक रूप से वे अप्रासंगिक हो जाएंगे। इसलिए, वर्तमान में संयुक्त मुकाबले के लिए गैर-भाजपा दलों को एकजुट करने के समानांतर प्रयास किए जा रहे हैं और इसीलिये देश के संविधान एवं कुछ मूलभूत संरचनाओं पर घातक आक्रमण किया जा रहा है। यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर सपा, बसपा एवं कांग्रेस ने उप्र विधान सभा चुनाव एक साथ मिल कर लड़ा होता तो भाजपा के नेतृत्व में राजग तीन दलों वाले इस गठबंधन से आसानी से हार गया होता जिसे 8.8 प्रतिशत अधिक मत हासिल हुए होते।
विपक्ष को एक मंच पर लाने के लिए इस बार क्षेत्रीय दलों को जोड़ने और ममता बनर्जी के पुराने फार्मूले पर चुनाव लड़ने पर जोर दिया जा रहा है। इसके तहत पहली योजना नेतृत्व के सवाल को गौण रखते हुए कांग्रेस के इतर सबसे पहले गैरराजग क्षेत्रीय दलों को एक साथ लाने की है। ममता का फार्मूला था कि जो दल जिस राज्य में मजबूत हो, दूसरे दल उस राज्य में उसी की अगुवाई में चुनाव लड़ें। बावजूद इसके विपक्ष के सामने नरेन्द्र्र मोदी है, उनके करिश्माई एवं जादूई व्यक्तित्व को आसानी से हरा पाना मुश्किल है, उनको परास्त करने का जज्बा किसी भी विपक्षी दल के पास नहीं है। हां, सभी विपक्षी दल एकजुट हो जाये तो यह संभव हो सकता है। जब चिड़िया एका कर लेती है तो शेर की खाल खींच सकती है। विपक्षी दलों को यह बात समझनी होगी। जॉन डिकिन्सन ने भी कहा है कि एकता से हमारा अस्तित्व कायम रहता है, विभाजन से हमारा पतन हो जाता है।’ विपक्षी दलों के पतन का कारण एकजुटता न होना ही है। विपक्षी दलों को हाथ ही पांच उंगुलियों की तरह रहने की अपेक्षा है, ये हैं तो पांच लेकिन काम सहस्रों का कर लेती है, क्योंकि इनमें एकता है।
जिस गति से विपक्षी एकता के प्रयास हो रहे हैं, उससे तेज गति से भाजपा 2024 के आम चुनाव एवं गुजरात विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी है। बहुत पहले ही मिशन 2024 की तैयारी की शुरुआत कर चुकी भाजपा की रणनीति अपना पुराना गढ़ बचाए रखने और विस्तार की संभावना वाले राज्यों में पूरी ताकत झोंकने की है। विस्तार के लिए इस बार पार्टी ने तेलंगाना, ओडिशा, पश्चिम बंगाल को चुना है। पार्टी शासित राज्यों में संगठन और सरकार को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए पार्टी नए जातीय, सामाजिक और क्षेत्रीय समीकरण पर आगे बढ़ रही है। विपक्ष शासित राज्यों में रणनीति बनाने का जिम्मा एक बार फिर से गृह मंत्री अमित शाह को दिया गया है। इस क्रम में शाह बिहार को दौरा कर चुके हैं और जम्मू कश्मीर और राजस्थान का दौरा करने वाले हैं।
लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता कायम होने की व्यापक संभावनाएं हैं। इसी साल कांग्रेस में जारी अध्यक्ष पद का विवाद सुलझेगा, जबकि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में उसे और आम आदमी पार्टी को अपनी ताकत का अहसास हो जाएगा। भाजपा और मोदी के प्रति सभी में समान भय है। यही भय विपक्ष में एकता कायम कराएगी। कामयाबी हासिल करने के लिए विपक्ष के नेताओं को अपने विशाल अहं को त्यागना होगा और अपनी चुनावी ताकत को लेकर अति भरोसे को छोड़ने के अतिरिक्त, एक न्यूनतम साझा एजेंडा तैयार करना होगा एवं एक ऐसी आकर्षक दृष्टि विकसित करनी होगी जो खासकर, युवा पीढ़ी की कल्पना एवं आकांक्षाओं के अनुरूप हो।