Allahabad High Court ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसने एक नए आयाम की शुरुआत की है और उन दंपतियों के लिए राहत का कारण बना है जो आपसी सहमति से तलाक लेने की इच्छा रखते हैं। यह फैसला उन लोगों के लिए बहुत अहम है जो एक लंबी अवधि से अपने वैवाहिक जीवन से अलग रहते हैं और अब अपने रिश्ते को कानूनी रूप से समाप्त करना चाहते हैं।
हाई कोर्ट ने एक विशेष मामले में तलाक की याचिका को मंजूरी दी, जिसमें दंपति एक वर्ष से अधिक समय से अलग रह रहे थे। कोर्ट ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि यदि पति-पत्नी एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग रह रहे हों और दोनों तलाक के लिए आपसी सहमति से सहमत हों, तो अदालत को इस अवधि को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अदालत ने इस मामले में विवाह भंग की अनुमति देते हुए तलाक की डिक्री जारी की और साथ ही बच्चों की अभिरक्षा मां को सौंप दी।
मामला क्या था?
यह मामला संभल जिले की मीनाक्षी गुप्ता और उनके पति कैलाशचंद्र से संबंधित था। दोनों का विवाह 2004 में हुआ था और शादी के बाद उनके तीन बच्चे हुए। लेकिन शादी के कुछ समय बाद दोनों के बीच मतभेद उभरने लगे, जिसके चलते वे 12 जनवरी 2022 से अलग रहने लगे। इसके बाद, 1 अगस्त 2023 को मीनाक्षी और कैलाशचंद्र ने आपसी सहमति से तलाक लेने का निर्णय लिया और परिवार न्यायालय में तलाक की याचिका दायर की।
हालांकि, परिवार न्यायालय ने यह याचिका खारिज कर दी, यह कहते हुए कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13-बी(1) के तहत तलाक के लिए एक वर्ष या उससे अधिक का अलगाव आवश्यक है, जो कि इस मामले में पूरा नहीं हुआ। परिवार न्यायालय ने तलाक याचिका को खारिज करते हुए तलाक की तिथि 2 अगस्त 2023 से मानने का आदेश दिया, जबकि मीनाक्षी ने हाई कोर्ट में इस आदेश को चुनौती दी।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की सुनवाई और अहम निर्णय
इस मामले को इलाहाबाद हाई कोर्ट की जस्टिस अरिंदम सिन्हा और जस्टिस अवनीश सक्सेना की डिवीजन बेंच ने सुना। हाई कोर्ट ने दोनों पक्षों को व्यक्तिगत रूप से बुलाया और उनकी राय जानी। दोनों पक्षों ने विवाह को समाप्त करने की अपनी इच्छा को स्पष्ट किया। अदालत ने इस दौरान बच्चों से भी बात की, जिन्होंने अपनी मां के साथ रहने की इच्छा जताई। इसके बाद, कोर्ट ने बच्चों की अभिरक्षा मां को सौंपने का आदेश दिया।
कोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान पाया कि दोनों पक्ष 12 जनवरी 2022 से 1 अगस्त 2023 तक एक वर्ष से अधिक समय तक अलग रह चुके थे, और इस अवधि के दौरान उन्होंने शारीरिक और मानसिक रूप से अपने रिश्ते को समाप्त करने का निर्णय लिया था। कोर्ट ने यह भी पाया कि इस अवधि में उनका कोई भी शारीरिक संबंध नहीं था, जो उनके वैवाहिक जीवन में लंबे समय से चल रहे अलगाव को प्रमाणित करता है।
क्या था हाई कोर्ट का फैसला?
हाई कोर्ट ने पाया कि इस मामले में तलाक के लिए सभी कानूनी शर्तें पूरी हो चुकी थीं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि आपसी सहमति से तलाक के लिए आवश्यक छह महीने की अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि भी पूरी हो चुकी थी। इसके आधार पर, कोर्ट ने परिवार न्यायालय के आदेश को निरस्त करते हुए तलाक की डिक्री जारी करने का आदेश दिया।
हाई कोर्ट ने यह भी ध्यान में रखा कि दोनों पक्षों ने तलाक के लिए अपनी सहमति दी थी और कोई भी पक्ष इसके खिलाफ नहीं था। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि तलाक की प्रक्रिया में पति-पत्नी के अलगाव की अवधि को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, विशेष रूप से जब यह एक लंबी अवधि तक चला हो और दोनों की सहमति से तलाक की प्रक्रिया पूरी की जा रही हो।
बच्चों की अभिरक्षा: एक महत्वपूर्ण मुद्दा
अदालत ने केवल पति-पत्नी के तलाक पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि बच्चों की अभिरक्षा को लेकर भी एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया। कोर्ट ने बच्चों से उनकी राय ली और उन्हें यह जानने की कोशिश की कि वे किसके साथ रहना चाहते हैं। बच्चों ने अपनी मां के साथ रहने की इच्छा जाहिर की, और इसके आधार पर हाई कोर्ट ने बच्चों की अभिरक्षा मीनाक्षी गुप्ता को सौंपने का आदेश दिया।
यह निर्णय न केवल तलाक के मामलों में बल्कि बच्चों की भलाई से जुड़े मामलों में भी एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है। अदालत ने बच्चों की इच्छा और उनकी भावनाओं का सम्मान किया और उनके भविष्य के लिए सबसे अच्छा निर्णय लिया।
आखिरकार क्या कहता है यह फैसला?
यह फैसला विशेष रूप से उन दंपतियों के लिए राहत का कारण बन सकता है, जो आपसी सहमति से तलाक लेना चाहते हैं और एक लंबी अवधि से अलग रह रहे हैं। हाई कोर्ट के इस निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि दोनों पक्ष तलाक के लिए सहमति देते हैं और तलाक की प्रक्रिया के सभी कानूनी प्रावधानों को पूरा किया गया हो, तो अदालत को तलाक की याचिका खारिज करने का अधिकार नहीं है। यह फैसला भारतीय कानूनी प्रणाली में तलाक से जुड़े मामलों को समझने में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हो सकता है।
यह फैसला न केवल परिवारों के लिए एक नई राह खोलेगा बल्कि तलाक से संबंधित मामलों में अदालतों के दृष्टिकोण को भी प्रभावित करेगा। इसके साथ ही, बच्चों की अभिरक्षा के मामलों में भी अदालतों को एक नई दिशा मिलेगी, जिससे बच्चों की भलाई और उनकी भावनाओं का सही तरीके से ध्यान रखा जाएगा।
इलाहाबाद हाई कोर्ट का यह फैसला भारतीय परिवारों के लिए एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है, जहां कानून और मानवीय संवेदनाओं के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश की गई है। कोर्ट का यह निर्णय तलाक के मामलों में न केवल कानूनी प्रक्रिया को समझने में मदद करेगा, बल्कि परिवारों को यह समझने का अवसर भी देगा कि उनका निजी जीवन किस हद तक कानूनी रूप से प्रभावित होता है।