बजट सत्र को इस तरह से हंगामेदार तो होना ही था, लेकिन बड़ा प्रश्न है कि देश का सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच कब तक बाधित होता रहेगा, संवाद और विमर्श के लिए उपयुक्त पात्रता कब सामने आयेगी। मानो विपक्षी दलों ने प्रण कर लिया है कि वह किसी भी सत्र को सुगम तरीके से नहीं चलने देगा। उसने न बेहतर सुझाव दिये हैं, न ही बुनियादी मुद्दों को उठाया है और न ही स्वच्छ आलोचनात्मक रूख अपनाकर सरकार का सहयोग किया है। ऐसे में, विपक्ष की भूमिका देश व सरकार के प्रति अपने कर्तव्य और दायित्व के सही निर्वहन की प्रतीत नहीं होती। संसद में नारेबाजी, अध्यक्ष की आसंदी तक जाकर हंगामा आदि विपक्ष का प्रिय शगल बन गया है। इसी वजह से लोकसभा अध्यक्ष को भी कहना पड़ता है कि ‘जनता सब देख रही है।’ हिंडनबर्ग रिपोर्ट हो या समान नागरिक संहिता विपक्ष का आक्रामक रूख और हंगामा उचित नहीं जान पड़ रहा। उसे अपनी छवि सुधारनी चाहिए। लगातार संसदीय अवरोध का कायम रहना लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है। लोकतंत्र में संसदीय अवरोध जैसे उपाय किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। इस मौलिक सत्य व सिद्धांत की जानकारी से आज का विपक्षी नेतृत्व अनभिज्ञ है। सत्ता के मोह ने, वोट के मोह ने, नरेन्द्र मोदी के बढ़ते वर्चस्व ने शायद उनके विवेक का अपहरण कर लिया है। कहीं कोई स्वयं शेर पर सवार हो चुका है तो कहीं किसी नेवले ने सांप को पकड़ लिया है। न शेर पर से उतरते बनता है, न सांप को छोड़ते बनता है। यह स्थिति देश के लिये नुकसानदायी है।
े देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार सत्तारूढ़ होने के बाद से विपक्ष हंगामे पर उतारू है। उसके विरोध के स्वरों में देशहित नहीं है, स्वहित है। जब से अडाणी समूह को लेकर हिंडनबर्ग का सर्वेक्षण आया है, विपक्ष के निशाने पर सरकार को लाने के लिये हंगामें खड़े कर दिये है। विपक्षी दलों की मांग है कि इस मामले में सरकार जवाब दे। इस हंगामे के चलते संसद का बजट सत्र बार-बार स्थगित करना पड़ा। कामकाज बाधित रहे। हालांकि अडाणी समूह इस मामले में लगातार सफाई देने और अपनी स्थिति सुधारने में जुटा हुआ है, मगर शेयर बाजार में उसकी कंपनियों के शेयर लगातार नीचे की तरफ रुख किए हुए हैं। इस मसले पर स्वस्थ चर्चा का माहौल बनना चाहिए, न कि हंगामें खड़े करके देश की संसद को अकर्मण्य एवं निस्तेज बना दिया जाये।
बिना किसी वजह के बौखलाया हुआ विपक्ष संसद की कार्यवाही चलने नहीं दे रहा। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की साख दुनिया में इतनी बढ़ गई है कि विपक्ष घबरा गया है, एलआईसी और स्टेट बैंक का अडानी समूह में नाममात्र का निवेश है, इसलिए इन दोनों सार्वजनिक संस्थाओं का डूबना बिल्कुल असंभव है। मगर सच जानते हुए भी विपक्ष जनता से हकीकत छिपाकर उसे गुमराह कर रहा है। देखा जाए, तो संसद में उठाने के लिए विपक्ष के पास मुद्दा नहीं है, इसलिए हताशा में वह इस मामले को तूल दे रहा है। हो सकता है सरकार की अडाणी या अन्य मामलों विफलताएं रही हो, लेकिन देश की समस्याएं भी अनेक हैं, विकास के अनेक मुद्दे हैं, क्यों नहीं विपक्ष उन पर चर्चा करता। संसदीय अवरोध कोई लोकतांत्रिक तरीका नहीं है, उससे हम प्रतिपल देश की अमूल्य धन-सम्पदा एवं समय-सम्पदा को खोते हैं। जिनकी भरपाई मुश्किल है। इसके साथ ही राजनीतिक मूल्य, भाईचारा, सद्भाव, लोकतंत्र के प्रति निष्ठा, विश्वास, करुणा यानि कि जीवन मूल्य भी खो रहे हैं। मूल्य अक्षर नहीं होते, संस्कार होते हैं, आचरण होते हैं। उन्माद, अविश्वास, राजनैतिक अनैतिकता, गैरजिम्मेदाराना व्यवहार, दमन एवं संदेह का वातावरण उत्पन्न हो गया है। उसे शीघ्र कोई दूर कर सकेगा, ऐसी सम्भावना दिखाई नहीं देती। ऐसी अनिश्चय, आशंका और भय की स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए संकट की परिचायक है। विशेषतः लोकतंत्र के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है।
इधर संसद एवं संसद के बाहर समान नागरिक संहिता को लेकर भी एक ऐसा फोबिया बन गया है जिससे देश की सियासत को धर्मों में बांटने की कोशिशें की जा रही हैं। सियासत में ध्रुवीकरण की राजनीति जमकर हो रही है। बेहतर यही होगा कि मुस्लिम समाज अपनी गलतफहमियों को दूर करे। यद्यपि भारतीय संविधान में सभी को अपना धर्म मानने और उसका प्रचार करने की आजादी दी गई है। मजहब भले ही अलग-अलग हों लेकिन देश एक है। ऐसे में यह सवाल उठना भी लाजमी है कि एक देश में अलग-अलग धर्मों के हिसाब से अलग-अलग कानून कैसे औचित्यपूर्ण हो सकते हैं, फिर बवाल क्यों? यह लोकतंत्र की गुणात्मकता और समाज की जीवंतता पर अपने आप में सवाल खड़ा करता है। जैसे-जैसे लोकतंत्र के विस्तार के साथ देश की भौतिक अवस्था में भी सकारात्मक बदलाव आया है, उससे तो कल्पना में यही बात रही होगी कि बौद्धिकता का भी स्तर और अभिव्यक्ति की शैली में प्रगतिशीलता और श्रेष्ठता आएगी। लेकिन यथार्थ इससे एकदम भिन्न है। बहस की शैली और तत्त्व दोनों में ही गिरावट आई है। संसदीय बहसें अपने सुनने-देखने वालों की भी रचनात्मकता को कम करने में अधिक कारगर हो रही हैं। यही कारण है कि हल्की, ऊटपटांग, उलाहनापूर्ण, व्यंग्य और अपशब्दों वाली बहसें एवं हंगामें, जिन्हें संक्षेप में अमर्यादित और असंसदीय कह सकते हैं,, जो लोकतंत्र की गरिमा को धूमिल करती है।
विपक्ष ने विरोध प्रकट करने का असंसदीय एवं आक्रामक तरीका ज्यादा से ज्यादा अपनाकर अपने विरोध को विराट बनाने के लिये सार्थक बहस की बजाय शोर-शराबा, नारेबाजी एवं संसद को अवरुद्ध करने का जो तरीका अपना रखा है, उससे लोकतंत्र की मर्यादाएं एवं गरिमा तार-तार हो रही है। संसद में रचनात्मक बहस तभी हो सकती है जब दोनों पक्षों में एक-दूसरे के विचारों को शान्ति के साथ सुनने की क्षमता जागे और दूसरे की बात पूरी हो जाने पर अपने सवालों को उठाया जाये। बहस का मतलब टोका-टाकी, छींटाकशी, आरोप-प्रत्यारोप या दूसरे के भाषण के दौरान अपना भाषण शुरू करना नहीं हो सकता। इससे संसद का माहौल बिगड़ता है।
विपक्ष सशक्त मुद्दों को उठाकर, शालीन एवं शिष्टता का परिचय देकर न केवल स्वयं को मजबूती दे सकता है, बल्कि असंख्य जनता का विश्वासपात्र भी बन सकता है, लेकिन ऐसा न होना विडम्बनापूर्ण है। संसद के कामकाज में बाधा डालकर विपक्ष न केवल अपने को कमजोर साबित कर रहा है बल्कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद को भी खोखला कर रहा है। अच्छा होता अगर वह संसद का इस्तेमाल सरकार से तीखे सवाल करने के लिए करता, अडाणी मुद्दें में सरकार की अतियों को खोजता, आम जनता से जुड़े मुद्दों पर सरकार की विफलता को उजागर करता, सरकार की नीतियों को सशक्त बनाने में सार्थक बहस करने में करता। उसके पास इसके लिए मुद्दों की कमी नहीं हैं। खासतौर पर अव्यवस्था, बेरोजगारी, भारत-चीन विवाद, जातीय जनगणना, बढ़ती महंगाई, गिरती कानून व्यवस्था आदि कई मुद्दों पर सार्थक संसदीय बहस के द्वारा विपक्ष स्वयं को जिम्मेदार होने का अहसास कराता। विपक्ष को इन मुद्दों पर सरकार को घेरना चाहिए था। सदन की गरिमा अक्षुण्ण रखना विपक्ष का भी दायित्व है। लोकसभा कुछ खम्भों पर टिकी एक सुन्दर ईमारत ही नहीं है, यह एक अरब तीस करोड़ जनता के दिलों की धड़कन है। उसके एक-एक मिनट का सदुपयोग हो। वहां शोर, नारे और अव्यवहार न हो, अवरोध पैदा नहीं हो। ऐसा होना निर्धनजन और देश के लिए हर दृष्टि से महंगा सिद्ध होता है।
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