मुजफ्फरनगर: उत्तर प्रदेश की राजनीति में गैर राजनीतिक नेताओं में अगर किसी एक व्यक्ति का कद काफी ऊंचा रहा है तो वह नाम महेंद्र सिंह टिकैत के रूप में आपकी आंखों के आगे तैर जाएगा। अपने दम पर किसानों की बात की। खम ठोंककर अपनी बात रखी। सरकारों को अपना दम दिखाया। पश्चिमी यूपी में एक समय सबसे बड़े चौधरी कहलाए। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद उत्पन्न शून्य को पाटा। किसानों के हक में लखनऊ ही नहीं दिल्ली तक की सरकार से भिड़ने से कोई संकोच नहीं किया। जी हां, हम बात कर रहे हैं महेंद्र सिंह टिकैत की। किसानों के इस चौधरी ने अपने लिए जो उसूल बनाए थे, उसे जीवन पर्यंत निभाया। उन्होंने शुरुआती दिनों में भारतीय किसान यूनियन के गठन के साथ ही इसे अराजनीतिक घोषित कर दिया था। अपने मंच पर उन्होंने कभी किसी राजनीतिक दल को नहीं आने दिया। चौधरी चरण सिंह की विधवा पत्नी और बेटे को भी नहीं।
महेंद्र सिंह टिकैत अपने मन से नहीं संयोग से किसान नेता बने थे। पिता के निधन के बाद उन्हें बालियान खाप का चौधरी घोषित किया गया। उस समय उनकी आयु केवल 8 साल की थी। चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद पश्चिमी यूपी में एक बड़ा राजनीतिक शून्य पैदा हुआ। इसे टिकैत ने भरा, लेकिन गैर राजनीतिक संगठन के जरिए। यही कारण रहा कि वे सुने गए। हर वर्ग ने उन्हें सुना और माना। चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद यूपी सरकार ने किसानों को दी जानेवाली बिजली के दामों में वृद्धि की थी। किसानों का प्रदर्शन शुरू हुआ तो सरकार सख्त हो गई। अब किसानों का नेतृत्व करने के लिए नेता को आगे आना था। बालियान खाप के चौधरी के नाते महेंद्र सिंह टिकैत आगे कर दिए गए। फिर तो उन्होंने ऐसा प्रदर्शन किया, सरकार की नाक में दम कर दिया था। आंदोलन से निपटने में नाकाम प्रशासन ने किसानों पर गोली चला दी। दो किसानों की मौत हुई। महेंद्र सिंह टिकैत मसले को लेकर ऐसा बैठे कि किसानों के सबसे बड़े नेता बन गए।
मंच पर राजनीतिक दलों को स्थान नहीं
महेंद्र सिंह टिकैत ने अपने मंच का इस्तेमाल किसी भी राजनीतिक दल को अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए नहीं करने दिया। इस कारण उन्हें माना भी गया और अक्खड़ भी कहा गया। एक आंदोलन के दौरान चौधरी चरण सिंह की विधवा गायत्री देवी अपने बेटे अजित सिंह के साथ पहुंची थीं। वे किसान आंदोलन के मंच पर अपनी बात रखना चाहती थीं। लेकिन, महेंद्र सिंह टिकैत ने उनके आगे हाथ जोड़ लिया। टिकैत ने गायत्री देवी से कहा कि हमारे पर कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं आ सकता है। उनके बेटे नरेश टिकैत और राकेश टिकैत, महेंद्र सिंह टिकैत की विरासत को आगे बढ़ाने की बात करते तो दिखते हैं, लेकिन उनका झुकाव कई बार कुछ राजनीतिक दलों की तरफ भी दिखने लगता है। महेंद्र सिंह टिकैत ने इस मामले में कभी समझौता नहीं किया।
महेंद्र सिंह टिकैत की है 88वीं जयंती
महेंद्र सिंह टिकैत की गुरुवार को 88वीं जयंती है। उनका जन्म 6 अक्टूबर 1937 को शामली से करीब 17 किलोमीटर दूर सिसौली गांव में हुआ था। 6 फीट से अधिक गाढ़े रंग का कुर्ता पहनने वाले महेंद्र सिंह टिकैत हमेशा गांधी टोपी लगाते थे। कमर में बंधा गमछा उनकी पहचान थी। लेकिन, वे यह गमछा कमर दर्द की वजह से बांधे रहते थे।
दिखावे की दुनिया से रहते थे दूर
किसानों के बड़ा नेता होने के बाद भी महेंद्र सिंह टिकैत कभी भी दिखावे में विश्वास नहीं करते थे। वे सबके लिए आसानी से उपलब्ध होते थे। लोकप्रियता के दिनों में भी उन्हें अपने खेतों में काम करता हुआ देखा जा सकता था। गन्ना की कटाई भी करते थे। ठेठ गंवई भाषा उनकी पहचान थी और इसी में वे खुश रहते थे। टिकैत सीधी-सीधी बात करते थे।
1988 में किया था बड़ा आंदोलन
महेंद्र सिंह टिकैत के 1988 के किसान आंदोलन को आज भी लोग याद करते हैं। दिल्ली के बोट क्लब में 25 अक्टूबर 1988 को महेंद्र सिंह टिकैत ने करीब 5 लाख लोगों का जुटान कर दिया था। गन्ने की खरीद मूल्य को बढ़ाने की मांग थी। बिजली की दरों में कमी की मांग हुई। किसानों की कर्जमाफी मुद्दा था। हर माह की 17 तारीख को वे पंचायत किया करते थे। इसमें दिल्ली तक बुग्गी से बुग्गी जोड़ने की घोषणा की। महेंद्र सिंह टिकैत को मनाने की कोशिश तत्कालीन गृह मंत्री बूटा सिंह, राजेश पायलट, बलराम जाखड़ और नटवर सिंह जैसे नेताओं ने की। वे नहीं माने।
दिल्ली पहुंचे किसानों को लेकर सरकार ये सोचती रही कि वे एक-दो दिनों में चले जाएंगे। लेकिन, राजपथ पर चूल्हा जला। बोट क्लब को अस्थायी घर बना लिया था। बैलगाड़ी, ट्रैक्टर, ट्रॉली आदि पर राशन भरकर वे दिल्ली पहुंचे थे। बोट क्लब में जब जानवरों का बसेरा हुआ। घास बैल और भैंसों ने चरना शुरू किया तो दिल्ली के सत्ता के गलियारों में खलबली मची।
किसानों को हटाने के लिए आधी रात को लाउडस्पीकर बजाया जाता था। दिल्ली के सभी स्कूल-कॉलेज बंद हो गए थे। केंद्र सरकार उस समय बोफोर्स स्कैंडल से जूझ रही थी। इस कारण महेंद्र सिंह टिकैत से उलझने से तत्कालीन पीएम राजीव गांधी को रोका गया था। हालांकि, 30 अक्टूबर 1988 को अचानक उन्होंने प्रदर्शन समाप्त करने की घोषणा कर दी। ये मामले खासे चर्चा में रहे।
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