उत्तर प्रदेश विधानसभा ने गुरुवार को पूरा एक दिन महिला जन प्रतिनिधियों को समर्पित कर नारी शक्ति को जो सम्मान दिया है, उसका संदेश दूर तक जाएगा। यह एक अनुकरणीय प्रयोग है जिससे नारी की योग्यता, क्षमता एवं राजनीतिक कौशल को एक नयी पहचान दी गयी है। यह भारतीय विधायी इतिहास का ऐतिहासिक दिन था, जिसमें सिर्फ महिला जन प्रतिनिधियों ने ही अपनी बातें रखीं और अपने ऊपर लगे उस ठप्पे को उतार फेंका कि राजनीति में वह पुरुषों की कठपुतली मात्र हैं। ऐसा नहीं कि सदन में महिलाएं पहले अपनी बात नहीं रखती थी, लेकिन उनकी संख्या कम ही होती थी। यह एक अनूठा प्रयोग था जिसने महिला जन-प्रतिनिधियों का आत्मविश्वास बढ़ा दिया है। इसके लिये उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं विधानसभा-अध्यक्ष सतीश महाना बधाई के पास है।
इस प्रेरक एवं विलक्षण उपक्रम ‘विशेष विधानसभा सत्र’ में 53 महिला विधायकों को अपनी बात रखी। यह सदन नारी शक्ति के नाम रहा। महिला विधायकों ने इस खास दिन पर जिस उत्साह और प्रभावी ढंग से सदन में महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा की, यह लोकतंत्र की प्राथमिक इकाइयों यानी महिला प्रधानों का भी मनोबल बढ़ाएगा, जिनका व्यक्तित्व पुरुषों के आगे थोड़ा दबा रह जाता है। यह ऐसी पहल है जो मिनी सदन कहे जाने वाले नगर निगमों तक भी पहुंचनी चाहिए। यहां भी सदन का पूरा एक दिन नारी शक्ति को समर्पित किया जाए, तो यूपी विधानमंडल से निकला संदेश सार्थक हो जाएगा। केवल ऊत्तर प्रदेश ही क्यों? देश की लोकसभा, राज्यसभा एवं विभिन्न्न राज्यों की विधानसभाओं में इस तरह वर्ष में कुछ सत्र महिलाओं को समर्पित यानी महिलाओं के नाम पर होने चाहिए। एक दिन महिलाओं को समर्पित करना उस सोच का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें नारी शक्ति के लिए सम्मान, श्रद्धा और उनके प्रति भरोसा जताने का भाव है। यूपी विधानसभा का यह दिन इसलिए भी याद किया जाएगा कि पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों के भाव एक थे। निश्चित रूप से प्रजातंत्र के इतिहास में यह दिन स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा, क्योंकि प्रदेश विधानसभा ने सिर्फ नारी शक्ति का सम्मान ही नहीं किया है, बल्कि अन्य राज्यों को भी प्रेरणा दी है।
भारत में महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के वास्तविक एवं सक्रिय दायित्व निर्वहन के लिए अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है, विशेष रूप से विधायी सदनों में जहां अधिक महिला राजनीतिक नेताओं की उपस्थिति और अधिक महिलाओं द्वारा अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने की आवश्यकता है। केवल महिलाएं दिखावे की जन-प्रतिनिधि न बने, बल्कि अपनी सक्रिय सहभागिता से पुरुष प्रतिनिधियों से आगे निकले। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, प्रगतिशीलता के युग में स्त्री को दूसरी श्रेणी का नागरिक माना जाता है, जबकि ढाई हजार वर्ष पहले ही भगवान महावीर ने स्त्री और पुरुष को समानता की तुला पर आरोहित कर दिया। हमारी संसद में स्त्री के लिए समान पारिश्रमिक के विधेयक स्वतंत्रता के चालीस वर्ष बाद पारित किए गये थे, जबकि स्त्री की रचनात्मक ऊर्जा का उपयोग व्यापक स्तर पर करने की जरूरत है। जिन समुदायों में आज भी स्त्री को हीन और पुरुष को प्रधान माना जाता है और इसी मान्यता के आधार पर परिवार, समाज एवं राष्ट्र के विकास में स्त्री एवं पुरुष की समान हिस्सेदारी नहीं होती, वे समुदाय स्वयं ही अपूर्णता का अनुभव करते होंगे। विधायी कार्य भी इसी कारण अपूर्णता का अनुभव करते हैं, जिसकी पूर्णता प्राप्त करने की दिशा उत्तर प्रदेश विधानसभा ने दिखायी है। वाणी और अर्थ से स्त्री और पुरुष का प्रतीकन किया जाए तो इन दोनों शक्तियों की संयोजना से एक विलक्षण शक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है। उस शक्ति से राजनीतिक एवं संसदीय जड़ता के केंद्र में विस्फोट करके ऐसी चेतना को उभारा जा सकता है, जो एक ऊंची छलांग भरकर लोकतंत्र को एक आदर्श एवं परिपूर्ण शक्ल दे सकता है।
‘एक हाथ से ताली नहीं बजती’, ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’, ‘अकेली लकड़ी, सात की भारी’ आदि कुछ कहावतें हैं, जो द्वैत की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं। स्त्री और पुरुष भी जब तक अकेले रहते हैं, अधूरे होते हैं। अकेली स्त्री या अकेले पुरुष से न सृष्टि होती है, न समाज होता है और न परिवार होता है, न लोकतंत्रीय व्यवस्थाएं होती है। जो कुछ होता है, दोनों के मिलन से होता है। इस दृष्टि से स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे का पूरक माना गया है। इस पूरकता को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं एवं विधायी कार्यों में प्राथमिकता दिये जाने की जरूरत है। यूपी ने एक उदाहरण प्रस्तुत करके न केवल देश बल्कि दुनिया को एक नयी दिशा प्रदान की है। मान्य सिद्धांत है कि आदर्श ऊपर से आते हैं, क्रांति नीचे से होती है। पर अब दोनों के अभाव में तीसरा विकल्प ‘औरत’ को ही ‘औरत’ के लिए जागना होगा।
ब्रिटेन, अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड, चीन, भारत और अन्य देशों के सन्दर्भ में, राजनीतिक प्रक्रिया में महिला भागीदारी का जो अध्ययन किया गया, उससे यह स्पष्ट है कि इन देशों में और सामान्य रूप में विश्व के अन्य देशों में राजनीतिक प्रक्रिया में महिला भागीदारी की स्थिति संतोषजनक नहीं है। वस्तुतः राजनीतिक प्रक्रिया में महिला भागीदारी के मार्ग में बाधक तत्त्व विद्यमान हैं। ये बाधक तत्त्व एक नहीं, वरन् अनेक हैं तथा इनमें राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक सभी प्रकार के तत्त्व हैं। राजनीतिक क्षेत्र में अनेक ऐसे कारक हैं, जो महिलाओं की भागीदारी को बाधित करते हैं। लगभग सभी देशों की राजनीति ‘पुरुष वाली और पुरुषों की कार्यशैली’ पर आधारित है तथा उसमें महिलाओं की परिस्थितियों और सुविधाओं पर ध्यान नहीं दिया गया है। संसदीय बहसों के लम्बे घण्टे तथा उसके उपरान्त संसदीय समितियों में कार्य, दलीय कार्य और निर्वाचन क्षेत्र से जुड़े विभिन्न कार्य तथा इन कार्यों से जुड़ी विभिन्न यात्राएँ यह सब कुछ इतना अधिक हो जाता है कि महिलाएँ पत्नी, माँ, बहन और दादी की भूमिका निभाने या गृहस्थी से जुड़े समस्त कार्यों के साथ इनका तालमेल नहीं बिठा पातीं। लेकिन सोच को बदला जाये एवं उचित सुविधाओं का प्रावधान किया जाये तो इन स्थितियों के बावजूद महिला प्रतिनिधि अपने कार्यों को सफलतापूर्वक कर सकती है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अनुसार भारत में महिला-पुरुष दोनों को समान अधिकार है। हम सभी को पता है कि मातृ शक्ति से सब कुछ संभव है। देश की आजादी के बाद महिलाओं के हक में काम हुए हैं। मां के समान कोई छाया नहीं, मां के समान कोई सहारा भी नहीं, मां के समान कोई रक्षक भी नहीं और मां के समान कोई प्रिय भी नहीं होता है। मुझे लगता है कि मातृ शक्ति के प्रति ये सम्मान हर नागरिक के मन में आ जाए तो मुझे लगता है कुछ भी असंभव नहीं है।
देश का सबसे बड़ा विधानमंडल एक नए इतिहास को बनाने के लिए अग्रसर हुआ है। आजादी के 75 वर्ष के बाद आधी आबादी अपनी आवाज को इस सदन के माध्यम से प्रदेश की 25 करोड़ जनता तक पहुंचा सकी है। भारत में महिलाओं के राजनीति में आगे बढ़ने की संभावनाओं पर छाये अंधेरे बड़ी मात्रा में हटे हैं। लेकिन अभी भी महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व नगण्य है। विश्व के विभिन्न देशों में जो राजनीतिक नेता हैं, उनमें कुछ मिलाकर लगभग 11 प्रतिशत महिलाएँ हैं और 89 प्रतिशत पुरुष। इन नेताओं में से अधिकांश पुरुषवादी सोच और यथास्थितिवाद से जुड़े हैं। स्वाभाविक रूप से जब कोई महिला राजनीति में प्रवेश करना चाहती है तो वे पग-पग पर बाधा पहुँचाते हैं तथा महिला के लिए दल का प्रत्याशी बन पाना बहुत कठिन हो जाता है। एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टर मान्यता वाले एवं राजनीति को अपनी बपौती मानने वाले पुरुष राजनेता औरत को मर्द की खेती समझते हैं। राजनीतिक संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हार जाती है। आज की औरत को राजनीति में हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को पुरुष-प्रधान राजनेता घेर कर बैठे हैं। उत्तर प्रदेश ने महिला सम्मान एवं विधायी अधिकारों का एक नया अध्याय लिखा है, उसका सर्वत्र स्वागत एवं अनुकरण होना ही चाहिए।