इतिहास और साहित्य में ऐसी प्रतिभाएं कभी-कभी ही जन्म लेती हैं जो बनी बनाई लकीरों को पोंछकर नई लकीरें बनाते हैं। वे अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीते हुए नया जीवन-दर्शन निरुपित करते हैं और कुछ विलक्षण सृजन करते हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का व्यक्तित्व और कृतित्व भी इसका अपवाद नहीं हैं। यह शब्द सिद्धा अपने वजूद के रेशे-रेशे में, अपनी सांस-सांस में कविता की सिहरनें जीता हुआ राष्ट्रीय चेतना को बलशाली बनाता गया। शायद इसीलिये उनका बोला हर शब्द कविता बनकर जन-जन में राष्ट्र के प्रति आन्दोलित करता रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन के उस दौर के अधिकांश कवि आजादी के गीत गा रहे थे, उनके कंठों में स्वतंत्रता का संगीत एवं क्रांतिकारी ज्वाला थी। मैथिलीशरण गुप्त भी अपनी कविताओं के माध्यम से देशभक्ति को स्वर देते आ रहे थे। आजादी की अनुगूंजें उनके काव्य का प्रमुख स्वर बनती गयीं। आजादी के लिये उनके क्रांतिकारी एवं आन्दोलनकारी शब्दों की ज्वाला ने देशभक्ति की अलख जगाई और वे जेल की सलाखों के पीछे भेज दिये गये। फिर भी उनकी शब्द-ज्वाला मंद नहीं पड़ी।
हिन्दी साहित्याकाश के दैदीप्यमान नक्षत्रों में से एक मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी के एक भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण काव्यानुरागी परिवार में 1886 में हुआ था। पिता सेठ रामचरण कनकने, माता कौशल्याबाई की वे तीसरी सन्तान थे। संस्कृत, बांग्ला, मराठी आदि कई भाषाओं का अध्ययन इन्होंने मुख्यतया घर पर ही किया। तत्पश्चात् आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आने से इनकी काव्य रचनाएं प्रतिष्ठित ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित होने लगीं। द्विवेदीजी की प्रेरणा और सान्निध्य से इनकी रचनाओं में गंभीरता तथा उत्कृष्टता का विकास हुआ। इनके काव्यधारा राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हैं। गांधी जीवन दर्शन से खासे प्रभावित गुप्त ने स्वतंत्रता संग्राम में भी योगदान दिया और असहयोग आंदोलन में जेल यात्रा भी की। 1930 में महात्मा गांधी ने उन्हें साहित्य साधना के लिए ‘राष्ट्र कवि’ की उपाधि दी। हिन्दी भाषा की विशिष्ट सेवा के लिए आगरा विश्वविद्यालय ने इन्हें 1948 में डी. लिट् की उपाधि से अलंकृत किया। सन् 1952 में गुप्तजी राज्यसभा में सदस्य के लिए मनोनीत भी हुए थे। 1954 में उन्हें पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।
मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं में बौद्धदर्शन, महाभारत तथा रामायण के कथानक स्वतः ही उतर आते हैं। हिन्दी की खड़ी बोली के रचनाकार गुप्तजी हिन्दी कविता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। उनका काव्य वर्तमान हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी है। इसमें वह संजीवनी शक्ति है जो किसी भी जाति, वर्ग, धर्म को उत्साह जागरण की शक्ति का वरदान दे सकती है। उनकी कविताओं में हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी, का विचार सभी के भीतर बदलाव की मानसिकता से गूँज उठा। मानवीय संवेदनाओं और जीवनदर्शन के साथ-साथ गुप्तजी की रचनाएं अनेक स्थानों पर सूक्तियां बन गई हैं। वे राष्ट्रीय चेतना, मानवतावादी सोच, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे। ‘भारत-भारती‘ गुप्तजी की प्रसिद्ध काव्यकृति है जो 1912-13 में लिखी गई थी। इसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि इसकी प्रतियां रातोंरात खरीदी गईं। प्रभात फेरियों, राष्ट्रीय आन्दोलनों, शिक्षा संस्थानों, प्रातःकालीन प्रार्थनाओं में भारत-भारती के पद गाँवों, नगरों में गाये जाने लगे। ‘भारत भारती‘ के तीन खण्डों में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य चित्रित है। यह स्वदेश-प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति ‘भारत भारती‘ निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है। गुप्तजी की सृजनता की दक्षता का परिचय देने वाली यह पुस्तक कई सामाजिक एवं राष्ट्रीय आयामों पर विचार करने को विवश करती है। भारतीय साहित्य में ‘भारत-भारती‘ सांस्कृतिक नवजागरण का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। गुप्तजी जिस काव्य के कारण जन-जन के प्राणों में रच-बस गये और राष्ट्रकवि कहलाए वह कृति ‘भारत-भारती‘ ही है।
मैथिलीशरण गुप्त केे लगभग 40 मौलिक काव्य ग्रंथों में भारत भारती (1912), रंग में भंग (1909), जयद्रथ वध, पंचवटी, झंकार, साकेत, यशोधरा, द्वापर, जय भारत, विष्णु प्रिया आदि उल्लेखनीय हैं। रामचरितमानस के पश्चात हिंदी में राम काव्य का दूसरा प्रसिद्ध उदाहरण साकेत है। नारी के प्रति उनका हृदय सहानुभूति और करुणा से आप्लावित हैं। यशोधरा, उर्मिला, कैकयी, विधृता आदि उनकी नारी प्रधान काव्य कृतियां हैं। गुप्तजी की भाषा में माधुर्य भाव की तीव्रता और प्रयुक्त शब्दों का सुंदर अद्भुत समावेश है। वे गंभीर विषयों को भी सुंदर और सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। इनकी भाषा में लोकोक्तियां एवं मुहावरे के प्रयोगों से जीवंतता देखने को मिलती है। इनकी शैली में गेयता, प्रवाहमयता एवं संगीतमयता विद्यमान है। उनकी राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत रचनाओं के कारण हिंदी साहित्य में इनका सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदैशिक स्थान है। हिंदी काव्य से राष्ट्रीय भावों की पुनीत गंगा को बहाने का श्रेय गुप्तजी को ही हैं। अतः ये सच्चे अर्थों में लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं को भरकर उनमें जनजागृति लाने वाले राष्ट्रकवि हैं। इनके काव्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।
राष्ट्रप्रेम गुप्तजी की कविता का प्रमुख स्वर है। गांधीवाद तथा कहीं-कहीं आर्य समाज का प्रभाव भी उन पर पड़ा है। अपने काव्य की कथावस्तु गुप्ताजी ने आज के जीवन से ना लेकर प्राचीन इतिहास अथवा पुराणों से ली है। वे अतीत की गौरव गाथाओं को वर्तमान जीवन के लिए मानवतावादी एवं नैतिक प्रेरणा देने के उद्देश्य से ही अपनाते थे। उन्होंने हिन्दी काव्य-साहित्य के क्षेत्र में कथ्य एवं शिल्प दोनों में आमूलचूल बदलाव कर दिया था। काव्य की एक सर्वथा मौलिक किन्तु सशक्त धारा उनसे जन्मी। इस साहित्यिक क्रांति का यह आश्चर्यजनक पहलू था कि यह ऐसे राष्ट्रप्रेमी लेखक की कलम से उपजी थी जिसने स्वतंत्रता आन्दोलन को नया मुकाम दिया। वह एक समय ऐसा था जब भारत विद्या, कला-कौशल, साहित्य, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, शौर्य व सभ्यता में, संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें सोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पग-पग पर पराया मुँह ताक रही है। क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते? संसार में ऐसा कोई काम नहीं है जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिये उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को एवं इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिये गुप्तजी ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष एवं जन-जागृति का शंखनाद किया है। तभी उनके स्वर मुखरित हुए कि जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं। वह हृदय नहीं पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।’
मैथिलीशरणजी अंत तक अपनी कविताओं में इसी तरह राष्ट्रीयता के नए-नए रंग भरते रहे और नव रस घोलते प्रसारित करते रहे। उनकी कविताओं में मुख्यतः विषय भक्ति, राष्ट्रप्रेम, भारतीय संस्कृति और समाज सुधार हैं। इनकी धार्मिकता में संकीर्णता का आरोप नहीं किया जा सकता, बल्कि इनकी धार्मिकता समग्रता और व्यापकता पर आधारित है। वे भारतीय संस्कृति के सच्चे पुजारी थे और सांस्कृतिक परंपराओं के अक्षुण्ण रखने के प्रबल पक्षधर थे । इसलिए इन सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण से वे असंतुष्ट, आन्दोलित और दुखी हो जाते थे। गुप्तजी ने सत्यं, शिवम् और सौन्दर्य की युगपत् उपासना करते हुए राष्ट्रीय भावना कोे बलशाली बनाया। इसलिये उनका काव्य मनोरंजन एवं व्यावसायिकता से ऊपर राष्ट्रीय भावना को पैदा करने वाला है। उनका काव्य एवं सृजन आत्माभिव्यक्ति, प्रशंसा या किसी को प्रभावित करना नहीं, अपितु जन-कल्याण एवं देशप्रेम की भावना का जगाना है। इसी कारण उनके विचार सीमा को लांघकर असीम की ओर गति करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। किसी भी सहृदय को झकझोरने में सक्षम है। निश्चित ही मैथिलीशरण गुप्त होना अपने आम में एक घटना है, स्वतंत्रता आन्दोलन का अमूल्य दस्तावेज एवं प्रेरक कथानक है।