लखनऊ: मायावती (Mayawati) के करीबी नेताओं में से एक बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा (Satish Chandra Mishra) अपनी ही पार्टी में किनारे लगते दिखाई दे रहे हैं। बसपा को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाने वाले सतीश चंद्र मिश्रा को लेकर बसपा में जिस प्रकार का माहौल बन रहा है, उसके बाद कहा जाने लगा है कि उनकी पारी अब पार्टी में खत्म होने वाली है। भले ही इस मामले में बसपा या सतीश चंद्र मिश्रा की ओर से कोई बयान नहीं आया है। कयासबाजियों का दौर खूब चल रहा है। ऐसे में उनके एक शानदार करियर में अहम मोड़ आता दिख रहा है। वकील से प्रदेश के कद्दावर ब्राह्मण नेता तक का सफर तय करने वाले सतीश चंद्र मिश्रा के भविष्य पर लोग कयास लगा रहे हैं। एक वकील से प्रदेश के प्रभावशाली चेहरा बनने की कहानी भी काफी रोचक है।
वकील के रूप में शुरू किया था करियर
कानपुर में 9 नवंबर 1952 को सतीश चंद्र मिश्रा का जन्म हुआ था। पिता जस्टिस त्रिवेणी सहाय मिश्रा और मां डॉ. शकुंतला मिश्रा के परिवार में जन्मे सतीश चंद्र मिश्रा का झुकाव वकालत की तरफ रहा। पंडित प्रीति नाथ कॉलेज से ग्रैजुएशन के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री ली। इसके बाद वकालत के पेशे से जुड़ गए। उनकी शादी 4 दिसंबर 1980 को कल्पना मिश्रा से हुई। उनकी चार बेटियां और एक बेटा है।
बार काउंसिल का अध्यक्ष बनकर छोड़ा छाप
सतीश चंद्र मिश्रा के जीवन में अहम मोड़ वर्ष 1998 में आया। उन्होंने बार काउंसिल ऑफ उत्तर प्रदेश का चुनाव लड़ा और चेयरमैन चुने गए। जनवरी 1998 से फरवरी 1999 तक वे इस पद पर रहे। इस दौरान उनके राजनीतिक कनेक्शन बढ़ने लगे। वे मायावती के संपर्क में आए। मायावती सरकार के समय मई 2002 में उन्हें उत्तर प्रदेश का एडवोकेट जनरल बना दिया गया। सितंबर 2003 तक वे इस पद पर रहे। यहीं से उनका बहुजन समाज पार्टी की तरफ झुकाव बढ़ गया।
राजनीति में आते ही मिला पद, पॉवर
सीधे तौर पर सतीश चंद्र मिश्रा की एंट्री बहुजन समाज पार्टी में जनवरी 2004 में हुई। बसपा ने उन्हें राष्ट्रीय महासचिव का पद दिया। जुलाई 2004 में वे राज्यसभा के लिए पहली बार चुने गए। इसके बाद वे 2010 और 2016 में भी राज्यसभा के लिए बसपा की ओर से निर्वाचित हुए। यूपी विधानसभा में बसपा के सीटों की संख्या एक पर पहुंचने के बाद उनके राज्यसभा जाने के रास्ते बंद हो गए। ऐसे में अब उनके राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगने लगा है। हालांकि, पिछले 18 सालों से वे पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव के पद पर कार्यरत हैं।
कई समितियों में रहे हैं सदस्य
सतीश चंद्र मिश्रा बतौर राज्यसभा सदस्य कई समितियों के मेंबर रहे हैं। वर्ष 2004 में उन्हें विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति का सदस्य बनाया गया। अगस्त 2004 से मई 2009, मई 2012 से मई 2014 और सितंबर 2014 से सितंबर 2015 तक गृह मामलों की समिति के सदस्य रहे। इसके साथ-साथ प्राचीन स्मारक, पुरातत्व स्थल और अवशेष संशोधन विधेयक चयन समिति, वित्तीय संकल्प और जमा बीमा विधेयक पर संयुक्त समिति, संविधान के 123वें संशोधन पर राज्यसभा की चयन समिति, राज्यसभा सदस्यों को कंप्यूटर के प्रावधान के लिए समिति, सामान्य प्रयोजन समिति एवं विशेषाधिकार समिति के सदस्य रहे हैं।
ब्राह्मण नेता के रूप में बनाई पहचान
उत्तर प्रदेश में सतीश चंद्र मिश्रा ने एक बड़े ब्राह्मण नेता के रूप में पहचान बनाई। वर्ष 2007 के यूपी चुनाव में वे बहुजन समाज पार्टी के लिए चाणक्य की भूमिका में थे। इस चुनाव में बसपा ने बड़ी लकीर खींची थी। दलित और मुसलमानों की राजनीति करने वाली बसपा ने पहली बार बहुजन से सर्वजन तक का सफर तय किया था। मायावती की राजनीति में इस बदलाव ने पार्टी को एक बड़े वोट बैंक तक पहुंचाया। इस चुनाव में मायावती ने 206 सीटों पर जीत दर्ज की। वर्ष 2002 के चुनाव में 96 सीटों पर जीत दर्ज करने वाली बसपा ने सपा को महज 97 सीटों पर दर्ज की। इस जीत के पीछे सतीश चंद्र मिश्रा की रणनीति मानी जा रही है।
पावर गया तो घट गई पूछ
सतीश चंद्र मिश्रा को बसपा ने यूपी चुनाव 2022 में बड़ी जिम्मेदारी दी थी। उन्होंने ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन कर एक बार फिर माहौल बनाने का प्रयास किया, लेकिन बसपा के साथ ब्राह्मण नहीं जुड़ पाए। चुनाव के समय में बसपा सरकार में कैबिनेट मंत्री नकुल दुबे कांग्रेस में शामिल हो गए थे। इसके बाद चुनाव के समय में स्टार प्रचारकों की सूची में उनका नाम न शामिल किया जाना और फिर महत्वपूर्ण बैठकों में उनके न बुलाए जाने के बाद मामला गहरा गया है। उनका राज्यसभा का कार्यकाल 4 जुलाई को खत्म हो रहा है। ऐसे में अब पार्टी उन्हें कई जिम्मेदारियों से मुक्त करती दिख रही है। अब देखना होगा कि सतीश चंद्र मिश्रा आगे क्या रणनीति अपनाते हैं।
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