आदिवासी लोगों के मूलभूत अधिकारों (जल, जंगल, जमीन) को बढ़ावा देने और उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए द्रौपदी मुर्मू को राजग का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाना एक सराहनीय एवं सूझबूझभरा कदम है। यह प्रशंसनीय एवं सुखद कदम इसलिये है कि आजादी के पचहत्तर वर्षांे के बाद देश के सर्वाेच्च संवैधानिक पद के लिये पहली बार आदिवासी महिला को सत्तारूढ़ दल द्वारा उम्मीदवार बनाया गया है। यदि कुछ असामान्य न हो तो वोटों के गणित के हिसाब से उनका राष्ट्रपति बनना तय है। भले ही मूर्मु को राष्ट्रपति बनाने के राजनीतिक निहितार्थ हो, लेकिन सदियों से वंचित रहे आदिवासी समाज को ऐसा प्रतिनिधित्व देना सराहनीय एवं उनके समग्र विकास की आहट है।
सरकारों के विकास के दावों एवं सन्तुलित समाज निर्माण के संकल्प के बावजूद वर्तमान दौर की यह एक बहुत बड़ी विडम्बना रही है कि आदिवासी समाज आज कई समस्यायें से घिरा है। हजारों वर्षों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को हमेशा से दबाया और कुचला जाता रहा है जिससे उनकी जिन्दगी अभावग्रस्त ही रही है। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ों रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को अपनी भूमि से बहुत लगाव होता है, उनकी जमीन बहुत उपजाऊ होती हैं, उनकी माटी एक तरह से सोना उगलती है, उसी जमीन से उसे अलग करने की साजिश भी लगातार होती रही है। इन हालातों में मूर्मु के राष्ट्रपति बनने से आदिवासी समुदाय का जीवन स्तर उन्नत हो सकेगा, ऐसा विश्वास है। निश्चित ही राजग गठबंधन एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस कदम से आदिवासी जन-जीवन में उत्साह का वातावरण बना है। राजग के इस कदम से जहां देश में सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता का संदेश गया है वहीं विपक्ष के साझा उम्मीदवार का दावा भी कमजोर हुआ है।
भाजपा के राजनीतिक कौशल एवं सधी चालों का यह नतीजा है कि मजबूत विपक्ष का हिस्सा रहने वाले ओडिशा के मुख्यमंत्री ने राजग प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू को न केवल समर्थन दिया है बल्कि ओडिशा के आदिवासी समाज से आने वाली इस प्रत्याशी को सभी दलों से राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर वोट देने की अपील भी की है। आदिवासी हितों के लिये आदिवासी बहुल राज्यों मसलन झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के राजनीतिक दलों को भी ऐसी ही सुझबूझ का परिचय देते हुए मुर्मू के पक्ष में मतदान की पहल करनी चाहिए। वाकई मुर्मू उन लोगों के लिये प्रेरणास्रोत बनेंगी जिन्होंने गरीबी के बीच बेहद कठिनाइयों का सामना किया है। इस बात का उल्लेख प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने ट्वीट के जरिये किया है। प्रधानमंत्री स्वयं चाहते हैं कि आदिवासी समुदाय का समग्र विकास हो एवं वे राष्ट्र की मूल धारा से जुड़े, इसके लिये मोदी ने समय-समय पर अनेक सफल प्रयोग भी किये हैं।
गुजरात में आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिये मोदी ने वहां भी अनेक योजनाओं को शुरु किया। इसी गुजरात के आदिवासी माटी में जन्मे जैन संत गणि राजेन्द्र विजयजी के सान्निध्य में वर्ष 2007 में हुए आदिवासी सम्मेलन में मोदी ने पन्द्रह हजार करोड़ की वनबन्धू योजना की घोषणा की थी। गणि राजेन्द्र विजयजी लम्बे समय से आदिवासी कल्याण के लिये प्रयासरत है और विशेषतः आदिवासी जनजीवन को उन्नत बनाने, उन क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, संस्कृति-विकास की योजनाओं लागू करने के लिये उनके द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं, इसके लिये उन्होंने सुखी परिवार अभियान के अन्तर्गत अनेक स्तरों पर प्रयास किये हैं। मैं स्वयं सुखी परिवार फाउण्डेशन का संस्थापक महासचिव होने के कारण इन योजनाओं का साक्षी रहा है। हम लोग रोजगार की दृष्टि से इसी क्षेत्र में व्यापक संभावनाओं को तलाश रहे हैं। शिक्षा के साथ-साथ नशामुक्ति एवं रूढ़ि उन्मूलन की अलख जगा रहे हैं। पढ़ने की रूचि जागृत करने के साथ-साथ आदिवासी जनजीवन के मन में अहिंसा, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना हमारा ध्येय है। निश्चित ही मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से इन योजनाओं को भी बल मिलेगा।
वैसे भी द्रौपदी मुर्मू का जीवन संघर्ष हर भारतीय के लिये प्रेरणास्पद है। एक स्त्री के जीवन की ऐसी त्रासदी कि उसने पति व दो पुत्रों को खोने के बाद हिम्मत नहीं हारी और पढ़ -लिखकर अपनी मंजिल हासिल की। एक सामान्य सरकारी कर्मचारी, स्कूल शिक्षिका के रूप में जीविका जुटाने के बाद एक पार्षद के रूप में राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। फिर दो बार विधायक बनीं और बीजद-भाजपा की सरकार में मंत्री बनीं। उनके राजनीतिक जीवन में झारखंड के राज्यपाल की पारी उल्लेखनीय रही है। लेकिन उसके बावजूद उनका जीवन सहज-सरल ही रहा है। उनमें भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों का विशेष प्रभाव है। अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार के नाम की घोषणा से दो दिन पूर्व ही मेरे पुत्र गौरव गर्ग के ससुराल रायरंगपुर की एक गौशाला में गयी और वहां गायों को चारा खिलाते हुए वहां के संचालकों से कहा कि आप मेरे लिये प्रार्थना करना। संभवतः उनको कुछ आशा एवं संभावना थी कि उनके नाम की घोषणा हो सकती है। गौमाता ने उनके दिल की पुकार को सुना। इनदिनों अखबारों में सुर्खी बनी उनकी एक फोटो में वे एक मंदिर में सफाई करती नजर आ रही हैं, जो उनकी सरलता एवं सहजता को दर्शाती है।
एक साजिश के तहत गैर आदिवासी को आदिवासी बनाने से भी अनेक समस्याएं खड़ी हुई है। इससे उनकी भाषा भी छिन रही है क्योंकि उनकी भाषा समझने वाला अब कोई नहीं है। जिन लोगों की भाषा छिन जाती है उनकी संस्कृति भी नहीं बच पाती। उनके नृत्य को अन्य लोगों द्वारा अजीब नजरों से देखे जाते हैं इसलिए वे भी सीमित होते जा रहे हैं। जहां उनका ‘सरना’ नहीं है वहां उन पर नए-नए भगवान थोपे जा रहे हैं। उनकी संस्कृति या तो हड़पी जा रही है या मिटाई जा रही है। हर धर्म अपना-अपना भगवान उन्हें थमाने को आतुर है। आज आदिवासी समाज इसलिए खतरे में नहीं है कि सरकारों की उपेक्षाएं बढ़ रही है बल्कि उपेक्षापूर्ण स्थितियां सदैव रही है- कभी कम और कभी ज्यादा। सबसे खतरे वाली बात यह है कि आदिवासी समाज की अपनी ही संस्कृति एवं जीवनशैली के प्रति आस्था कम होती जा रही है। मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से इस जीवंत समाज को उसी के परिवेश में उन्नति के नये शिखर मिल सकेंगे, ऐसी व्यापक संभावनाएं है। निस्संदेह मुर्मू की सफलता से आदिवासी व महिला समाज को संबल मिलेगा। लेकिन जरूरी है कि यह सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व का विषय ही न बन कर रह जाये। जमीनी हकीकत में भी सामाजिक न्याय की कवायद सिरे चढ़े। तभी यह देश के जनजाति समुदाय व भारतीय लोकतंत्र के लिये सार्थक सिद्ध होगा। जरूरी है कि देश के वंचित समुदाय को लेकर राजनीतिक चेतना का भी विकास हो, जिससे सामाजिक न्याय को हकीकत बनाया जा सके। इसके लिये जरूरी है कि इस वर्ग को लेकर सामाजिक सोच में भी बदलाव आये। लेकिन एक बात तो तय है कि उच्च संवैधानिक पदों पर समाज से अलग-थलग रहने वाले वर्ग को यदि प्रतिनिधित्व मिलता है तो बदलाव की नई राहें खुलती हैं। जरूरत इस बात की है कि देश का राजनीतिक नेतृत्व इसके प्रति संवेदनशील रहे।
द्रोपदी मुर्मू तीसरी दलित एवं पहली आदिवासी राष्ट्रपति होंगी, वह समाज जिसने विकास से विस्थापन की बड़ी कीमत चुकाई है। ऐसा नहीं है कि उनके उत्थान के लिये देश में कानून नहीं बने, लेकिन वास्तविक धरातल पर उन्हें सामाजिक न्याय नहीं मिल सका। देश में आदिवासी समाज लंबे समय से उपेक्षित रहा है। अब राजग ने मुर्मू को उम्मीदवार बनाकर आदिवासी समाज को विकास की राह पर अग्रसर करने के संकल्प को दोहराया है। इस कदम से राजनीतिक उद्देश्यों को भी पूरा किया जा रहा है, क्योंकि भारत में लगभग 25 प्रतिशत बन क्षेत्र है, इसके अधिकांश हिस्से में आदिवासी समुदाय रहता है। लगभग नब्बे प्रतिशत खनिज सम्पदा, प्रमुख औषधियां एवं मूल्यवान खाद्य पदार्थ इन्हीं आदिवासी क्षेत्रों में हैं। भारत में कुल आबादी का लगभग 11 प्रतिशत आदिवासी समाज है। आदिवासी समाज को उपेक्षित कर राजनीतिक सफलता की कल्पना करना अंधेरे में तीर चलाने जैसा होगा।