देश लम्बे समय से शांत था, एकाएक एक वर्ग-विशेष एवं कतिपय राजनीतिक दलों को यह शांति, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं अमन-चैन की स्थितियां रास नहीं आयी और उन्होंने साम्प्रदायिक भाईचारे एवं सौहार्द को खण्डित करने का सफल षडयंत्र रच दिया। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय ने मंगलवार को दो अलग-अलग मामलों में यह बिल्कुल साफ कर दिया कि देश के सांप्रदायिक भाईचारे से खिलवाड़ करने की छूट किसी को नहीं दी जाएगी और इसके लिए शीर्ष अधिकारी अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। राष्ट्रीय एकता-अखण्डता, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं शांति-व्यवस्था को किसी भी जाति एवं धर्म का व्यक्ति आहत करें, उसकी निन्दा ही नहीं, कठोर कार्रवाही होनी ही चाहिए। ऐसी घटनाओं के प्रति न्यायालय जागरूक हो, उससे पहले समाज को जागरूक होना चाहिए। हम अलविदा करें उन सब साम्प्रदायिक दुराग्रहों एवं संकीर्णता की बदलती पर्यायों और परिणामों को जो हमें विकास, आपसी भाईचारे, प्रेम, सुयश के साथ-साथ जीवन की शांति एवं समाधि से वंचित रख देते हैं। दुनिया की महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर होते हुए हमें उन सभी सवालों के उत्तर खोजने होंगे जो हमारी सौहार्द एवं शांति की संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं। बड़ा प्रश्न है कि साम्प्रदायिक नफरत एवं द्वेष के वातावरण में भारत कैसे शक्तिशाली बन सकेगा?
साम्प्रदायिक हिंसा, नफरत एवं द्वेष की स्थितियां दिल्ली, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल ही नहीं, अब तो राजस्थान जैसे शांति एवं सौहार्दप्रिय प्रांत में राजनीतिक आग्रह का कारण बन रही है। अल्पसंख्यक समुदाय को खुश करने के लिये बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को आहत करना राजनीतिक दुराग्रह का द्योतक है। साम्प्रदायिक संकीर्णता एवं हिंसा रूपी कोढ़ ”माँ“ के शरीर पर चिपके हुए हैं। ये तो वो फोड़े हैं जो मिटते नहीं, रिसते रहते हैं। एक बात समझ में नहीं आती कि वर्षों से साथ-साथ रहने वाले लोग एक मिनट में ही कैसे जान के दुश्मन हो जाते हैं। जो बीत गया वह झूठ था या यह जो घट रहा है वह झूठ है। और हां ये सब दंगे त्यौहारों, पर्वों पर ही क्यों होते हैं? ये तो जिस किसी के हैं, ”पवित्रता“ का ही बोध कराते हैं।
त्यौहार, जो भाईचारे के, पवित्रता के , प्रकाश के, रंगों के, अच्छाइयों के, यूं कहें जीवन मूल्यों के प्रतीक थे। संस्कृति, सभ्यता के बेशकीमती तानों-बानों से गुंथे हुए थे। ये आज भी ताज से उजले, गंगा से पावन, कुतुबमीनार जैसे ऊंचाई लिए हुए, भाखड़ा जैसे जीवनदायी और अपने में महापुरुषों का संदेश संजोए हुए हैं। जो यह हम हैं कि इन सबसे परिचित नहीं हो रहे हैं, लगता है हमारी पात्रता में ही कहीं सुराख हो गए हैं।
रामनवमी से अब तक देश में सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हो चुकी हैं और इन वारदातों का दायरा लगभग एक दर्जन राज्यों में फैल चुका है। ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणियां काफी महत्वपूर्ण हैं। यदि शीर्ष अधिकारियों की जिम्मेदारी तय होने लगे, तो प्रशासनिक लापरवाही की गुंजाइश ही नहीं रह बचेगी। दोषी व्यक्तियों के प्रति निष्पक्षता से कानूनी कार्रवाही होने लगे तो विखण्डन एवं विद्वेष की खाइयां चोड़ी नहीं होगी, बल्कि इन्हें बार-बार दोहराने का अपराध करने वाले भी सहमेंगे। यह जानते हुए कि सांप्रदायिक हिंसा से न सिर्फ पूरा सामाजिक ताना-बाना प्रभावित होता है, जान-माल की क्षति होती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धूमिल होती है, हमारा तथाकथित राजनीतिक अमला एवं संकीर्ण एवं देश तोड़क साम्प्रदायिक शक्तियां प्रायः बेहतर नजीर नहीं पेश कर पाती। समाज के अगुवा लोग भी अब बहुत सक्रिय नहीं दिखते। कैसी विसंगतिपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियां हैं कि लोग नुकसान हो जाने के बाद तिरंगा यात्रा या सद्भावना यात्रा निकालते हैं, जबकि उस समय वे गायब रहते हैं जब उनकी रहनुमाई एवं सद्भावना प्रयासों की सबसे अधिक जरूरत हिंसा के समय होती है। यह बड़ा एवं स्पष्ट तथ्य है कि यदि कानून-व्यवस्था जागरूक हो तो प्रशासनिक इच्छाशक्ति की बदौलत संप्रदायों के असामाजिक तत्वों को सिर उठाने से रोका जा सकता है, ऐसा हुआ है और भविष्य में अधिक प्रभावी ढंग से हो सकता है।
यह लाल और काले धब्बे, लाशें और जले हुए मकान- आदमी की जानवर बन जाने की कहानी चीख-चीख कर कह रहे हैं। खतरा मन्दिरों, मस्जिदों, गिरजों और गुरुद्वारों को नहीं है। खतरा हमारी संस्कृति को है, हमारी राष्ट्रीय सोच को है जो हमारी हजारों वर्षों से सिद्ध चरित्र की प्रतीक है। जो युगों और परिवर्तनों के कई दौरों की कसौटी पर खरी उतरी है। कोई बहुसंख्यक और कोई अल्पसंख्यक है, तो इस सच्चाई को स्वीकार करके रहना, अब तक हम क्यों नहीं सीख पाए? देश में अनेक धर्म के सम्प्रदाय हैं और उनमें सभी अल्पमत में हैं। वे भी तो जी रहे हैं। उन सबको वैधानिक अधिकार हैं तो नैतिक दायित्व भी हैं। देश, सरकार संविधान से चलते हैं, आस्था से नहीं। जब जान (अस्तित्व) खतरे में हो, तब दोस्त का भी विश्वास मत करो और जब दोस्त खतरे में हो तो जान की भी परवाह मत करो। यह बात एक जानवर भी जानता है। भयंकर साम्प्रदायिक हिंसा एवं नफरत के दौर से गुजर कर देश अभी शांत दिखाई दे रहा था। लेकिन इस शांति को ग्रहण किसने लगाया? यह आंकने का और सजगता बरतने का वक्त है। यह संकट इससे पूर्व के संकटों से ज्यादा अभूतपूर्व है। क्योंकि उस वक्त शासन करने एवं साम्प्रदायिकता फैलाने वाले एक ही थे। लेकिन आज उसका सामना करने वाले पहले से अधिक कद्दावर नेता हैं जो आपसी मतभेदों से देशहित ऊपर मानते थे, जो राष्ट्रीयता, भारतीयता चाहते हैं। इन्हीं की राष्ट्रीय जिजीविषा के कारण भारत ने अनेक आंधियां अपने सीने पर झेली हैं, तूफान झेले हैं पर भाईचारे के इस दीपक को बुझने न दिया। कोई भी परिवार, समुदाय या राष्ट्र एक-दूसरे के लिए कुर्बानी करने पर ही बने रहते हैं। क्या देशवासी एकजुट होकर पूर्वाग्रह उत्सर्ग करने के लिए तैयार होंगे। यह आज सबसे बड़ा राष्ट्रीय प्रश्न है और समय की मांग है, जो शताब्दियों में किसी राष्ट्र के जीवन में कभी-कभी आता है। अतीत का जीया गया वह काला कालखण्ड जिसने हमारी समृद्ध एवं गौरवपूर्ण संस्कृति को धूमिल कर दिया, कम-से-कम मन एवं मानसिकता को अनुमति सिर्फ इतनी-सी दे कि फिर ऐसा कुछ न हो, जिससे भारत की संस्कृति एवं राष्ट्रीयता को आहत करने की पुनर्रावृत्ति हो।
यह तो सर्वविदित एवं सामान्य समझ की बात है कि सामाजिक उथल-पुथल देश की आर्थिक तरक्की को प्रभावित करती है। इससे निवेशक बिदकते हैं और राज्य की जो ऊर्जा तरक्की में लगनी चाहिए, वह सामाजिक सौहार्द की बहाली में खर्च करनी पड़़ती है। विभिन्न राज्यों के पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण सांप्रदायिक तनाव रहा है। इसलिए सरकारों को ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए। यह देखना सुखद है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ एवं उनकी सरकार के सख्त और संतुलित रुख के कारण मंदिरों और मस्जिदों ने साम्प्रदायिक सौहार्द के लिये कई कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। किसी भी धर्म में धर्मगुरुओं व पंथ-प्रधानों का काम गुमराह लोगों को सही रास्ता दिखाना होता है, इसकी एक सुदीर्घ परंपरा भारत में रही है, मगर धर्म की आड़ में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की खेती अब इसे नुकसान पहुंचाने लगी है। व्यक्तिगत, सामुदायिक व राष्ट्रीय उत्कर्ष में सहायक धार्मिक आयोजनों से भला किसी को क्यों गुरेज होगा? लेकिन एक आदर्श समाज एवं शासन व्यवस्था में सामान्य जीवनबोध के लिये कानून को सीख देनी पड़े, इसे सहज स्वीकार्य नहीं किया जाना चाहिए।