यूक्रेन-रूस युध्द को दूसरा सप्ताह बीतने पर है, कितने दिन और बीतेंगे
कोई नहीं जानता। बेशक यूक्रेन हर रोज तबाह हो रहा है लेकिन युध्द के मैदान
में डटे रहना जेलेंस्की का नेतृत्व और उससे भी बढ़कर वहाँ के नागरिकों का
देशप्रेम बताता है। यह बात अलग है कि यदि यूक्रेन पराजित हुआ तो वापस
खड़े होने में लंबा वक्त लगेगा और जीता तो भी यही होना है। हर हाल में युध्द
की विभीषिका की सबसे बड़ी कीमत सिर्फ और सिर्फ यूक्रेन को ही चुकानी
पड़ेगी।
भले ही शुरू में दुनिया को लगा हो कि युध्द कुछ घण्टों का होगा और
दुनिया के नक्शे से एक लोकतांत्रिक देश सिमट जाएगा? मगर ऐसा नहीं हुआ।
हर सुबह युध्द की नई विभीषिका रात की तबाही का मंजर दुनिया को दिखाती,
बताती और कल के दावे का कयास लगाती। लंबा वक्त बीत रहा है, कल क्या
होगा कोई नहीं जानता। महाशक्ति को चुनौती देना कोई साधारण बात नहीं।
लेकिन रूस का भी इसे लेकर आंकलन गलत निकला। रूस का यूक्रेन की
चुनौती का सामना कोई रणनीति तो नहीं लगती बल्कि दुनिया के सामने खुद
को लजाने जैसा है। सबको पता है कि पुतिन का सपना एक बार फिर टूटे हुए
सोवियत संघ को वापस बनाना है। लेकिन यूक्रेन का भी किसी देश के बुनियादी
उसूलों की भाँति स्वतंत्रता, स्वायत्तता, संप्रभुता को बरकरार रखने की मंशा भी
तो बुरी नहीं कही जा सकती..!
इसे कोई गलती कहे या कोई यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की की अपने
देशवासियों की भावनाओं का सम्मान लेकिन उन्होंने नाटो पर भरोसा करके
यूक्रेन की भलाई का वो सपना देखा था जो रूस के साथ सच नहीं हो पाता। अब
जेलेंस्की की ये उम्मीदें कितनी खरी और कितनी खोटी निकलीं आईने की तरह
साफ है। यूक्रेन की तबाही और मानवाधिकार उलंघनों की त्रासद और पल-पल
आती तस्वीरों ने दुनिया को झकझोर जरूर दिया है। न रूस मान रहा है और न
ही यूक्रेन झुकता दिखता रहा है।
विडंबना देखिए वो दो देश आपस में दुश्मन हो गए जिनका रोटी-बेटी का
रिश्ता है। हर तीसरा व्यक्ति एक दूसरे की भाषा बोलता, जानता तथा रिश्तेदार
भी है। कभी रूस को बनाने में अहम रहा यूक्रेन आज खुद को उसी से हथियाए
जाने से डरा हुआ है। सच तो यह है कि यह लड़ाई यूरोपीय लोकतांत्रिक बनाम
कथित निरंकुश देश की है। अमेरिका और नाटो के तमाम प्रतिबंधों के बावजूद
रूस की सेहत पर किसी भी प्रकार का कोई फर्क नहीं दिखना उसकी अड़ी बताता
है। पुतिन की वैश्विक छवि के लिए यह बेहद खतरनाक हो सकता है लेकिन
रूस की सेहत पर कुछ फर्क पड़ेगा लगता नहीं।
फोर्ब्स मैगजीन में दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोगों में लगातार कई
बार शुमार रहे पुतिन को ऐसा क्या हो गया जो वो एक अड़ियल रुख अपना रहे
हैं? 16 साल तक सोवियत संघ की गुप्तचर संस्था केजीबी में अधिकारी के रूप
में सेवा दे चुके पुतिन ने 2000 और फिर 2004 का राष्ट्रपति चुनाव जीता।
2008 में प्रधानमंत्री बने फिर अपने मुताबिक संविधान संशोधन को कानून
बनवाकर 6-6 वर्ष के कार्यकाल के लिए 2012 और 2018 में फिर राष्ट्रपति
बने और इस तरह 2036 यानी 86 वर्ष की उम्र तक के लिए रास्ता साफ करा
लिया।
वहीं जेलेंस्की जो टीवी सेलेब्रिटी स्टार रहे हैं अप्रेल 2019 में ही यूक्रेन के
राष्ट्रपति बने। नाटो में शामिल होने की कवायद के चलते रूस से दूरियां बढ़ती
रहीं। रूसी की लगातार धमकी, सैन्याभास से बेफिक्री और अलगाववादियों को
समर्थन के चलते मौजूदा हालात सामने हैं। युध्द के दौरान भी बेहतरीन
अदाकार जैसे अपने भावुक भाषणों से देश की जनता के हाथों में हथियार पकड़ा
पूरी दुनिया को जेलेंस्की ने जहाँ प्रभावित किया वहीं रूस के विरुध्द जबरदस्त
माहौल जरूर बना दिया। चंद घण्टों की लड़ाई का मंसूबा पाले महाशक्ति के
सामने चुनौती ने वैश्विक अनिश्चितता ला खड़ी की है। निश्चित रूप से यूक्रेन
की तबाही आज उस मोड़ पर आ खड़ी हुई है जहाँ मानवाधिकारों के हनन और
तमाम शहरों के विध्वंश के चलते दुनिया भर में यूक्रेन के प्रति सहानुभूति उमड़ी
और देखते ही देखते संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, संयुक्त राष्ट्र महासभा आदि
की बैठक में व्यापक समर्थन मिलना एक अलग संकेत है।
सवाल बेहद बड़ा है। क्या रूस, अमेरिका और अमेरिका के इशारे पर नाटो
के त्रिकोण से युध्द उस अंजाम तक जाएगा जहाँ से तीसरे विश्व युध्द की
शुरुआत होगी? रुस, यूक्रेन को अमेरिका की तरफ झुकता देखना नहीं चाहता।
यूक्रेन रूस की तरफ जाना नहीं चाहता ऐसे में अंकल सैम कहें या खुद को
दुनिया का दारोगा मानने वाले अमेरिका और पुतिन के नेतृत्व में फिर
महाशक्ति बनने का ख्वाब पाले रूस का सोवियत संघ बनाने का मंसूबा
दुनिया को किस मोड़ पर ले जाएगा, इसका जवाब फिलाहाल न तो आसान
दिखता और न ही सुलझता।
यूक्रेन पूर्वी यूरोप स्थित एक देश है जिसकी सीमाएँ पूर्व में रूस, उत्तर में
बेलारूस, पोलैंड, स्लोवाकिया, पश्चिम में हंगरी, दक्षिण पश्चिम में रोमानिया और
माल्दोवा और दक्षिण में काला सागर और अजोव सागर से मिलती हैं। यूक्रेन
यूरोप का दूसरा बड़ा देश है जो आठ साल से जारी यूक्रेनी अलगाववादियों के
सशस्त्र विद्रोह को झेल रहा है। ऐसे में रूस ने यूक्रेन के दो प्रदेशों लुहान्सक और
दोनेत्स्क को स्वतंत्र गणराज्यों की मान्यता देकर आग में घी डालने का
काम कर मौजूदा हालात बनाए हैं। इस बात से जरा भी इंकार नहीं कि विकास
और अंतरिक्ष पर फतह करने की होड़ के बीच धरती पर युध्द थोड़ा बेजा लगता
है लेकिन यह सच है।
पुतिन भले ही आत्मविश्वास से भरे दिखें, जेलेंस्की के भावुक भाषणों से
दुनिया को मदद के लिए गुहारें लेकिन यह भी सच्चाई है कि रूस और यूक्रेन
स्लाविक हैं, दोनों ही नाजियों के खिलाफ मिलकर लड़े हैं। मैदानी जंग के
अलावा 21 वीं सदी की बनती इस सबसे बड़ी लड़ाई का कोई ओर-छोर दिखता
नहीं है क्योंकि यूक्रेन कोई कीबिया या सीरिया नहीं है। पर्दे के पीछे सारा खेल
कभी अलग सा भी दिखने लगता है कि कहीं मकसद तेल और गैस की
प्राकृतिक संपदा हथियाना तो नहीं? यूक्रेन को भले ही सीधी मदद न मिले
लेकिन तमाम देशों से हथियारों की खेप जिसमें टैंक, मिसाइल, ऐन्टी एयरक्राफ्ट
गन और तमाम आधुनिक हथियार देकर यूक्रेन को उकसाने और डटे रहने की
अमेरिकी जुगत से यह युध्द भले ही तीसरे विश्व युध्द के खतरे का आगाह
कराता हो लेकिन सच तो यही है कि मानवता पर कहर बनकर टूटी यह जंग
परमाणु युध्द की ओर भी बढ़ती सी दिख रही है। यूक्रेन के दो परमाणु
बिजली संयत्रों पर कब्जा, तीसरा हथियाने की तैयारी, थर्मोबारिक यानी वैक्यूम
बमों का इस्तेमाल तक मानवता के लिए अच्छा नहीं है। 11 वें दिन यूक्रेन का
रूस पर पलटवार करना खतरनाक इशारा है।
एक आशियाना बनाने में लोगों की पूरी उम्र गुजर जाती है। यहाँ तो
शहर के शहर तबाह हो रहे हैं ऊपर से यूक्रेन के नागरिकों ने कामकाज छोड़
हमलों की तैयारी पूरी कर हाथों में हथियार उठा लिए। महिलाएँ तक जंग के
मैदान में डटीं हैं। युध्द का अंजाम जो भी निकले नहीं पता लेकिन मैदान से
इतर भी एक लड़ाई जारी है जिससे यह युध्द कभी प्रोपोगण्डा तो कभी
इन्फर्मेशन, कभी हाईब्रिड, कभी फोटो, कभी इण्टरनेट तो कभी डिजिटल वार भी
लगने लगता है। ईश्वर न करे दो महाशक्तियों की जूतम पैजार के बीच फँसते
दोनों ही तरफ के पड़ोसी देश भी कहीं युध्द की विभीषिका में न उलझ जाएं
वरना जैसा कि लगने लगा है तीसरा विश्व युध्द तय है। अगर ऐसा हुआ तो
रूस-अमेरिका में जंग कोई भी जीते हारेगी और तबाह होगी सिर्फ और सिर्फ
इंसानियत। बस ऐसा न हो नहीं तो 21 वीं सदी का यह विश्व युध्द किस
कगार पर ले जा सकता है कल्पना मात्र से ही सिरहन होती है क्योंकि जैसी कि
धमकियाँ दोनों ही ओर से दी जा रही हैं उससे लगता है कि दुनिया ही नहीं
बचेगी तो जीतेगा कौन? और जो बच भी जाएंगे उनके जख्मों, नासूर, भूख-
प्यास का क्या हश्र होगा? सोचकर भी डर लगता है।
भारत की तटस्थता पर जरा भी सवाल नहीं लेकिन क्वाड बैठक के बाद
बाइडन का उसके रुख को लेकर इशारा भी बुरी आहट है। तूफान में दिए की यह
लड़ाई किस मोड़ पर जा रही है इसको लेकर कोई कुछ कह पाने की स्थिति में
नहीं है। बात छोटे-बड़े, शक्ति-महाशक्ति की नहीं, बस किसी कदर इस युध्द को
रोकने की ही है। इस जरा सी दिखने वाली बहुत भारी भूल मानवता का ही
समूल विध्वंश न करे इस पर सबको तुरंत सोचना ही होगा।