समझ न पाती किस वेदना से
भरे दिल से ले यह अश्रुभार
किसे चाहती पहना देना
अपने गले का हार।
… ये पंक्तियां है महान रचनाकार एवं राष्ट्रगान लिखने वाले रवींद्र नाथ टैगोर की। कहानी उत्तर प्रदेश की में पंक्तियों से इसलिए शुरुआत की है कि रवींद्रनाथ का संबंध और हार का संबंध एक व्यक्ति से कनेक्शन को जोड़ता है। हम बात करने जा रहे हैं सियासत के एक बड़े चेहरे के बारे में, जो अपने आप में एक नाम है और ये नाम है जितिन प्रसाद का। जिन्होंने अपनी राजनीति की लड़ाई में कदम रखा तो जीत हासिल की, लेकिन समय ऐसा पलटा कि जितिन प्रसाद को एक बाद एक लगातार 3 बार हार का मुंह देखना पड़ा। तीसरी हार तो बहुत ही शर्मनाक रही, जिसमें जमानत तक जब्त हो गई। वहीं, राजनाथ सिंह के सामने चुनाव न लड़ने का फैसला भी गलत साबित हुआ, क्योंकि राजनाथ के सामन लड़ते तो हार लगभग थी, लेकिन सुरक्षित सीट धौरहरा से लड़े और जमानत जब्त हो गई ये उससे भी बड़ी हार थी। अब बात कर लेते हैं रवींद्रनाथ टैगोर की, जिनका कनेक्शन जितिन प्रसाद से कैसे हैं तो इसके लिए हमें कुछ पुराने पन्ने पलटने होंगे तो आइए चलते हैं और पन्ने पलटते हैं…
देवेंद्रनाथ टैगोर, जोकि रवींद्रनाथ टैगोर के पिता थे और उनकी 14 संताने थीं। इनमें से रवींद्रनाथ के एक भाई हेमेंद्रनाथ टैगोर थे। हेमेंद्रनाथ के घर 1884 में एक लक्ष्मी ने जन्म लिया, जिसका नाम रखा गया पूर्णिमा देवी। टैगोर घराने की बिटिया थी तो स्वाभाविक था शादी भी बड़े घराने में होगी। पूर्णिमा देवी की शादी शाहजहांपुर के जमींदार एवं अंग्रेजों की उच्च सिविल सेवा इंपीरियल सिविल सर्विस के अधिकारी सर ज्वाला प्रसाद से हुआ। इन दोनों से एक बेटा हुआ, जिनका नाम रखा गया कुंवर ज्योति प्रसाद। कौन जानता था कि ज्योति प्रसाद बड़े होकर राजनीति की ओर रुख करेंगे और एक दिन उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस जॉइन कर ली। पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ कई आंदोलनों में शामिल रहे।
कुंवर ज्योति प्रसाद का विवाह तत्कालीन कपूरथला स्टेट से आई पामेला देवी से हुआ। इन दोनों से एक बेटा हुआ, जिनका नाम रखा गया जितेंद्र प्रसाद। पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए जितेंद्र प्रसाद ने भी राजनीति में कदम रख दिया और 70 के दशक में कांग्रेस पार्टी में आ गए। 1970 में जितेंद्र प्रसाद को पहली बार राजनीतिक पहचान मिली, जब वह उत्तर प्रदेश विधानपरिषद के सदस्य बने। 1971 लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के कद्दावर कांग्रेसी हेमवती नंदन बहुगुणा ने उन्हें शाहजहांपुर की सीट से मैदान में उतार दिया और जितेंद्र प्रसाद जीतकर सांसद बने। इसके बाद इमरजेंसी का दौर देश ने देखा। जिसके बाद कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी। 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस की सरकार चली गई और जितेंद्र प्रसाद भी हारे, लेकिन उन्होंने फिर 1980 में हुए चुनाव में शाहजहांपुर सीट से ही जीत हासिल की। इसके बाद 1984 में भी जीते। वहीं, कांग्रेस में टूट पड़ गई और 1977 के लोकसभा चुनाव की घोषणा होने के बाद हेमवंती नंदन कांग्रेस से अलग हो गए। पूर्व रक्षा मंत्री के साथ मिलकर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी पार्टी बनाई और जितेंद्र प्रसाद को बुलावा भेजा, लेकिन उन्होंने कांग्रेस छोड़ने से साफ इन्कार कर दिया। इसका इनाम उन्हें 1984 में मिला। राजीव गांधी ने जितेंद्र प्रसाद को एआईसीसी का महासचिव बनाया। यही नहीं राजीव गांधी ने उन्हें अपने सलाहकारों में भी शामिल किया। वहीं, 77 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी पार्टी को 28 सीटें मिली, जिसका बाद में जनता दल में विलय हो गया था।
अभी वह दौर भी आना बाकी था, जब जितेंद्र प्रसाद के लिए हालात बदलने लगे। 1989 में जितेंद्र प्रसाद को शाहजहांपुर सीट से भाजपा प्रत्याशी सत्यपाल यादव के हाथों हार मिली। 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। इसके बाद पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने। इसी बीच जितेंद्र प्रसाद ने नरसिम्हा राव से अच्छी पकड़ बना ली और इसी का नतीजा रहा कि 1994 में जितेंद्र प्रसाद को राज्यसभा भेजा गया। इसके साथ ही नरसिम्हा राव ने उन्हें देश के सबसे बड़े सूबे यूपी की कमान सौंप दी। 1994 में जितेंद्र प्रसाद ने अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती कर दी। जितेंद्र प्रसाद के इनपुट पर पीवी नरसिम्हा राव ने यूपी में कांग्रेस-बसपा गठबंधन पर हामी भर दी, जोकि कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हुआ। कहा जाता है कि एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जितेंद्र प्रसाद और कांशीराम मौजूद थे। प्रेसवार्ता के दौरान पत्रकारों के बार-बार सवाल पर कांशीराम ने कहा कि हम 300 सीटों पर चुनाव लडेंगे और कांग्रेस सवा सौ सीटों पर लड़ेगी। ये कांग्रेस के लिए शर्मनाक रहा, क्योंकि उस समय देश में कांग्रेस से बड़ी कोई पार्टी नहीं थी और हालात थे कि कांग्रेस को समझौता करना पड़ा। प्रदेश में कांग्रेस-बसपा गठबंधन प्लाप रहा। इसका असर जितेंद्र के कॅरियर पर भी पड़ा।
सितंबर 1996 से लेकर मार्च 1998 तक सीताराम केसरी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। 1998 का वह दौर जब एक ओर सोनिया गांधी सक्रिय राजनीति में आना चाहती थी तो दूसरी ओर केसरी के समर्थक सोनिया को आने से रोक रहे थे। वहीं, एक धड़ा केसरी को अध्यक्ष पद से हटाना चाहता था। इस धड़े में जितेंद्र प्रसाद का भी नाम शामिल था। 1998 में लोकसभा चुनाव हुए और सीताराम केसरी को प्रचार से दूर रखा गया। सोनिया गांधी ने पूरी तरह से कमान संभाली। 16 फरवरी से 28 फरवरी तक तीन चरणों में चुनाव संपन्न हुए और किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को इस चुनाव में बड़ा झटका लगा। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें, जबकि कांग्रेस के खाते में 141 सीटें आईं। भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी, एआईएडीएमके और बिजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहार वाजपेयी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीने में ही गिर गई। इस चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी ने अपनी सीट नहीं बचा पाए और इसका ठीकरा सीताराम केसरी के सिर फोड़ दिया गया और 1998 में कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी को मिल गई। सोनिया गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। 1999 के चुनाव में जितेंद्र प्रसाद एक बार फिर जीतकर लोकसभा पहुंचे। 2000 में संगठन के चुनाव हुए, जिसमें सोनिया गांधी के सामने जितेंद्र प्रसाद को चार फीसदी वोट मिले। इसका जितेंद्र प्रसाद को बहुत बड़ा धक्का लगा। 16 जनवरी 2001 को जितेंद्र प्रसाद का निधन हो गया।
इसी साल जितेंद्र प्रसाद के बेटे जितिन प्रसाद ने राजनीति में कदम रखा। जितिन प्रसाद ने यूथ कांग्रेस जॉइन की। जितिन का जन्म 1973 में हुआ। ज्योतिरादित्य सिंधिया, कलिकेश देव और दुष्यंत सिंह उनके साथ पढ़े थे। दून स्कूल की पढ़ाई के बाद जितिन प्रसाद श्री राम कॉलेज गए और एमबीए किया। वहीं, 2001 में ही जितिन प्रसाद को बड़ी जिम्मेदारी दे दी गई, उन्हें महासचिव बना दिया गया। जितिन प्रसाद राहुल गांधी की युवा टीम में रहे, जिसमें सचिन पायल, ज्योतिरादित्य सिंधिया भी शामिल थे। 2004 लोकसभा चुनाव में शाहजहांपुर से जितिन को टिकट मिला और जीत हासिल की। जितिन प्रसाद को इस्पात राज्य मंत्री बनाया गया। 2008 में नए परिसीमन में धौरहरा सीट बनी। ये सीट लखीमपुर खीरी और सीतापुर के कुछ हिस्सों को जोड़कर बनाई गई। 2009 में आम चुनाव हुए और जितिन धौरहरा से लड़कर जीत हासिल की, लेकिन 2014 में मोदी लहर में जितिन प्रसाद अपनी सीट नहीं बचा पाए और धौरहरा से हार गए। यहां से रेखा वर्मा ने जीत हासिल की। 2017 में जितिन प्रसाद तिलहर सीट से यूपी विधानसभा का चुनाव लड़े और ये भी हार गए। यहां भी भाजपा के ही रोशन लाल वर्मा ने उन्हें हराया।
2019 का लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी। यूपी में प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया पूरी तरह से कमान संभाल चुके थे। वहीं, इसी बीच दिल्ली से जितिन प्रसाद को सलाह दी गई कि आप लखनऊ से लड़ जाइए। लड़ने के लिए भी भाजपा के दिग्गज एवं साफ छवि के नेता राजनाथ सिंह के सामने कहा गया। जितिन प्रसाद को लगने लगा था कि हार मिलना लगभग तय है, लेकिन कभी-कभी इनसान की हार सामने वाली की जीत से बड़ी होती है। ऐसे कई नेता भी हुए हैं, जिन्होंने इसको साबित भी किया है। इसमें सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी और बेल्लारी प्रमुख है, लेकिन जितिन प्रसाद पहले ही दो हार देख चुके थे और तीसरी के लिए तैयार नहीं थे। जितिन ने मना करते हुए अपनी धौरहरा सुरक्षित सीट से लड़ने की ठानी, लेकिन इस बार भी जितिन प्रसाद के भाग्य ने साथ नहीं दिया और वह चुनाव हार गए। इस बार तो उनकी जमानत भी जब्त हो गई। भाजपा की रेखा वर्मा ने जितिन को फिर दोबारा से हराया। यहीं कारण रहा कि जितिन प्रसाद की राहें अलग दिखने लगीं। कांग्रेस में 2 साल रहने के बाद आखिरकार 9 जून 2021 को जितिन प्रसाद ने भाजपा जॉइन कर ली।
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