काश! 2022 में धरती की सुध ले ली जाती…

-ऋतुपर्ण दवे

यह नए वर्ष 2022 में कोरोना के साथ विकास से पैदा प्रदूषण भी मानव अस्तित्व के लिए बड़ी चुनौती बनेगा। वहीं तापमान बढ़ने के सिलसिले को यदि इस बरस भी गंभीरता से लिया गया तो बस 8 साल ही बचे हैं जब धरती का बुखार का लाइलाज होगा! साल 2022 का यह सबसे बड़ा सवाल है? सबको पता है 2030 से 2052 तक धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ेगा जो पर्यावरण खातिर खासा प्रतिकूल होगा। रिसर्चर बताते हैं कि वाहनों, उद्योगों, कारखानों से निकली कॉर्बन डाईऑक्साइड से पादप, फंफूदी पराग, बीजाणुओं का उत्पादन बढ़ता है जो हवा संग हमारे शरीर में पहुंच अस्थमा, राइनाइटिस, सीओपीडी, स्किन कैंसर एवं अन्य तमाम एलर्जी सरीखी घातक बीमारियों की वजह बनता है।

हमने जेट रफ्तार से तरक्की तो कर ली। अंधाधुंध औद्योगिकीरण, शहरीकरण को अंजाम भी दे दिया। नए-नए मुकाम हासिल किए। लेकिन इन सबसे तेज सुपरसोनिक रफ्तार से अपने विनाश की कहानी भी रच डाली।  इसी सत्य को स्वीकारना होगा। विकास और बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों के बीच मानव सभ्यता की यही तथा-कथा है। खुद की बेहतरी की आड़ में हमने प्रकृति को लगातार विकृत किया उसके स्वरूप और संसाधनों को छलनी कर डाला। महज चंद वर्षों में घोरतम अन्याय करते हुए यह तक भूल बैठे कि जिसे हम तहस-नहस कर रहे हैं, उसे बनने में लाखों बरस लगे थे! 

ग्रीन हाउस गैसें कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हैलोकार्बन का भारी उत्सर्जन ही जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण है। यह भी सच है कि तीन लाख साल पहले धरती पर 9 मानव प्रजातियों की उत्पत्त हुईं थीं जिनमें अब हम अकेले हैं। अपनी सुख, सुविधाओं के लिए लाखों वर्ष पुराने प्राकृतिक स्वरूपों, संसाधनों को इस कदर रौंदा कि नदियां समय से पहले सूखने लगीं, जंगल पेड़ों बिन वीरान हो गए, पहाड़ टूटकर ईमारतों खातिर गिट्टियां में तब्दील हुए, पानी से लबालब धरती की कोख सूख-सूख कर पाताल छूने को मजबूर हुई और प्राणदाता वायुमण्डल प्राण विरोधी जहरीली फिजाओं से भर गया। प्रकृति के संग भी तो विकास संभव था, लेकिन तमाम तरह की प्रतिस्पर्धाओं की होड़ में हम लगातार भूलते गए और अब भी नहीं चेत रहे हैं।

 बढ़ता वायुमंडलीय तापमान असहनीय होता जा रहा है। उद्योगों, कल कारखानों से उत्सर्जित दूषित गैसें बुरी तरह साँसों को लीलने खातिर अनेकों समस्याएं पैदा कर रही हैं। आंकड़े देखें तो बस 10 बरसों में दुनिया भर में जीवाश्म ईधन यानी लगभग 65 करोड़ वर्ष पूर्व जीवों के जलने व उच्च दाब और ताप में दबने से बना कोयला, पेट्रोल, डीजल, मिट्टी के तेल आदि की जितनी खपत की वह वातावरण को बिगाड़ने खातिर बहुत ज्यादा है। जीवाश्म ईधन व दूसरी औद्योगिक प्रक्रियाओं के चलते विश्व में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में 4,578.35 मिलियन मीट्रिक टन की बढ़ोत्तरी क्या हुई कि वायुमंडल गर्माता मिजाज बेकाबू हो रहा है। यही तो ग्लोबल वार्मिंग है, उसका कारण है। जलस्रोत, ग्लेशियर, जैव विविधता, कृषि उत्पादकता और मानव जीवन सब कुछ बुरी प्रभावित हो रहे हैं और फिर भी हम हैं कि मानते नहीं!

प्राकृतिक आपदाओं से बीते केवल 2 वर्षों में दुनिया भर में बेघर हुए लोगों की संख्या 10 बरसों में सबसे ज्यादा रही। जहाँ साढ़े 5 करोड़ लोग अपने-अपने ही देशों में विस्थापित हुए वहीं ढ़ाई करोड़ से ज्यादा दूसरे देशों में मजबूरन शरणागत हुए। चीन के हेन्नान में भी एक हजार साल की बारिश का रिकॉर्ड टूटा। बड़ी संख्या में लोग मरे, सड़कें हफ्तों पानी से लबालब रहीं। यूरोप में दो दिन में इतना पानी बरसा जितना दो महीने में बरसता। नदियों के तट टूट गए। पानी गांवों और शहरों में जा घुसा। हजारों घर, दूकान, दफ्तर, अस्पताल सब पानी-पानी हो गए। जर्मनी, बेल्जियम में सैकड़ों मौतें हुईं। सदियों पुराने आबाद गांव एक ही रात में बह गए। भारत में भी महाराष्ट्र, उप्र, उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर, मप्र, बिहार, झारखण्ड प.बंगाल, सहित दक्षिणी राज्यों कुल मिलाकर पूरे देश का काफी बुरा हाल रहा। हर कहीं से बारिश की तबाही खौफनाक तस्वीरों ने जब-तब खूब डराया।  

वहीं अमेरिका के वाशिंगटन और कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में हीट डोम बनने से हवा एक जगह क्या फंसी कि तापमान 49.6 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा। अमेरिका के ऑरेगन जंगल की आग ने दो हफ्ते में ही लॉस एंजेलेस जितना इलाका राख कर दिया। पर्यावरण को बहुत भारी नुकसान हुआ। हरे-भरे जंगल वीरान रेगिस्तानों में बदल गए। सुलगते जंगलों की जलती लकड़ियों का धुंआ न्यूयार्क तक सांसों पर भारी पड़ा। ब्राजील का मध्यवर्ती इलाका भी शताब्दी के सबसे सूखे की चपेट में आ गया और अमेजन के जंगलों के अस्तित्व पर आन पड़ी।   

पर्यावरणीय असंतुलन से पहले ही बेलगाम बारिश और तपिश ने प्राकृतिक आपदाएं बढ़ा रखी हैं। आगे कितना कहर ढाएंगी सोचकर सिहरन होती है। चिन्तातुर पूरी दुनिया बैठकों और विचार विमर्श में मशगूल है, नतीजा कुछ निकलता नहीं उल्टा सब मेरा प्रदूषण-तेरा प्रदूषण में ही उलझ जाते हैं। इधर धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है और हम हैं कि मानते नहीं!

जलवायु परिवर्तन है क्या? इसकी समझ अभी भी कई लोगों के लिए आसान होकर भी आसान नहीं है। बिना लाग लपेट बस इतना समझ लें तो काफी होगा कि दुनिया में औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत 1850 से 1900 के बीच हुई। उस वक्त धरती का जितना तापमान था उसे ही मानक इकाई मानकर स्थिर रखना है ताकि पर्यवारण भी स्थिर रहे। बस यही जरा सी नासमझी इंसान के वजूद पर भारी पड़ रही है।

फिल्म ही सही हमने विनाश का ट्रेलर देख लिया है, सवाल बस इतना कि आखिर हम चेतेंगे कब? प्रकृति के साथ अपनी हैवानियत भरी करतूतों को काबू भी करेंगे या नहीं? प्रकृति के संग, प्राकृतिक वातावरण में भी तो विकास संभव है। इतिहास गवाह है कि हजारों बरस पहले भी दुनिया भर की तमाम प्राचीन सभ्यताएँ बेहद विकसित थीं, तब तो पर्यावरण को कभी मानव सभ्तया ने नुकसान नहीं पहुँचाया था जो अब है। समूची दुनिया को इस बारे में सोचना ही होगा वरना इस बात से भी इंकार नहीं कि लाखों वर्षों में बने जीवाश्म ईधऩ के बेतहाशा दोहन की भरपाई का जरिया भी हम ही तो बनेंगे! काफी कुछ बिगाड़ने के बाद भी काश हम, सब वक्त रहते चेत पाते।

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