दुनिया की सबसे प्राचीन नगरी वाराणसी में है भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर। वाराणसी को बनारस या काशी भी कहते हैं। हिंदू धर्म में वाराणसी का और वाराणसी में काशी-विश्वनाथ मंदिर का विशेष महत्व है। मान्यता है कि काशी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिका है। पवित्र गंगा नदी के किनारे बसे देवों के देव महादेव की इस नगरी में लोग मोक्ष प्राप्त करने आते हैं।काशी का उल्लेख हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों में भी किया गया है। मान्यता है कि महादेव शिव और माता पार्वती का यह आदि स्थान है। भगवान भोले शंकर के वरदान के कारण यहां शरीर त्यागने वाला व्यक्ति तत्काल मोक्ष को प्राप्त करता है।
हिंदू धर्म के श्रद्धालुओं में इस तीर्थ स्थान को लेकर खास आस्था है। इसी आस्था को मिटाने के लिए विदेशी आक्रमणकारियों ने कई बार बाबा विश्वनाथ के मंदिर को तोड़ने की कोशिश की।द्वादश ज्योतिर्लिंगों में शामिल काशी विश्वनाथ मंदिर को विश्वेश्वर नाम से भी जाना है। मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ अनादि काल से ही यहां विराज रहे हैं। इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। बताया जाता है कि राजा हरीशचन्द्र के बाद सम्राट विक्रमादित्य ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। इस भव्य मंदिर को 1194 में मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया।इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद गौरी के तोड़ने के बाद इस मंदिर का निर्माण फिर से कराया गया, लेकिन जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने इसे दोबारा तुड़वा दिया।
इसके बाद अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल ने 1585 में इसका पुनर्निर्माण किया। यहां बाबा विश्वनाथ के भव्य मंदिर को देखकर मुगल शासक शाहजहां को जलन होने लगी और उसने सन् 1632 में इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। हिन्दुओं के प्रतिरोध के कारण मुगल सेना मुख्य विश्वनाथ मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।शाहजहां के विफल रहने के बाद मुस्लिम शासक औरंगजेब में 18 अप्रैल, 1669 को काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर एक मस्जिद बनाने का आदेश दिया। बताया जाता है कि यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां के ‘मासीदे आलमगिरी’ में इस ध्वंस का वर्णन है।
औरंगजेब के आदेश पर यहां मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई।बार-बार मंदिर तोड़े जाने से हिंदुओं में काफी नाराजगी थी। सन 1752 के बाद मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया और मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए, लेकिन उस समय काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज होने से मंदिर के पुनर्निर्माण का काम रुक गया। आखिरकार इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने 1777-78 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। अहिल्याबाई होलकर द्वारा वर्तमान विश्वनाथ मंदिर बनवाने के बाद 1835 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर पर सोने का छत्र बनवाया। इसके बाद यहां नेपाल के राजा ने विशाल नंदी की प्रतिमा स्थापित करवाई।
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