लखनऊ
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में इस समय सबसे ज्यादा चर्चा समाजवादी पार्टी की गठबंधन सियासत को लेकर है। इस बार चुनावों में इस गठबंधन से अखिलेश यादव कितना लाभ उठाते हैं? ये तो समय ही बताएगा। वैसे उत्तर प्रदेश में गठबंधन की सियासत का लंबा इतिहास रहा है। चुनाव लड़ने से लेकर सत्ता बनाए रखने के सबसे ज्यादा प्रयोग यहीं पर हुए। गठबंधनों के चुनावों में जीत के भी उदाहरण हैं लेकिन जब बात सत्ता चलाने की आती है तो यूपी में गठबंधन सरकार के लिए 5 साल का कार्यकाल पूरा करना नाको चने चबाना जैसा ही है।
इस बार अखिलेश यादव की चर्चा इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि वह सत्तारूढ़ बीजेपी को हराने के लिए छोटे दलों को अपने साथ जोड़ रहे हैं। इनमें सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर भी हैं, जो 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ खड़े थे। बाद में मंत्री बने और फिर बीच सरकार में ही गठबंधन से अलग हो गए। वहीं एसपी और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन भी पुराना रहा है। पिछले चुनावों में रालोद शून्य पर आ गिरी थी, बीजेपी ने उसकाे बड़ा नुकसान पहुंचाया था। इस बार किसान आंदोलन के दौरान रालोद प्रमुख जयंत चौधरी ने संगठन स्तर पर काफी मेहनत की है और दोबारा पुरानी हैसियत हासिल करने को लालायित दिख रहे हैं।
गठबंधन सरकार के लिए 5 साल पूरा करना टेढ़ी खीर
बात अगर यूपी के राजनीतिक इतिहास की करें तो प्रदेश ने कई सियासी गठबंधन देखे, सियासत के जानी-दुश्मन साथ आए, कुछ चुनाव से पहले गठबंधन हुए कुछ चुनाव के बाद, 6-6 महीने मुख्यमंत्री वाला फॉर्मूला भी आया लेकिन कोई भी प्रयोग सफल नहीं रहा। राज्य में कोई गठबंधन लंबा नहीं चला। किसी भी गठबंधन की सरकार ने 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया।
यहां चौधरी चरण सिंह ने पहली बार वर्ष 1967 में अलग-अलग दलों को साथ लेकर सरकार बनाने का प्रयोग किया। तब चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल (लोकदल) बनाया और सरकार बना ली। उस सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ भी शामिल हुआ। लेकिन ये सरकार एक साल भी नहीं चली। चरण सिंह के बाद 1970 में कांग्रेस से अलग हुए विधायकों ने त्रिभुवन नारायण सिंह (टीएन सिंह) के नेतृत्व में साझा सरकार बनाने का प्रयोग किया। इसमें कई अन्य दलों के साथ जनसंघ भी शामिल था, पर यह सरकार छह महीने भी नहीं चली। इसके बाद आपातकाल से नाराज राजनीतक दलों ने 1977 में जनता पार्टी के नाम से फिर एक गठबंधन किया। सूबे में रामनरेश यादव की अगुवाई में में जनता पार्टी की सरकार बनी, लेकिन ये एकजुटता कुछ ही दिन में बिखर गई।
मुलायम ने कांग्रेस की मदद से सरकार बचाई लेकिन…
वर्ष 1989 में देश और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के विरोधी दलों ने पहले जनमोर्चा फिर जनता दल के नाम से गठबंधन बनाया। यूपी में मुलायम सिंह यादव की अगुवाई में 5 दिसंबर 1989 को जनता दल की सरकार बनी, पर यह भी पांच साल नहीं चली। इस दौरान राम मंदिर आंदोलन शुरू हो गया और बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सिंह ने कांग्रेस की मदद से अपनी सरकार बचाई लेकिन यह दोस्ती भी ज्यादा नहीं चली।
…जब पहली बार मुख्यमंत्री बनीं मायावती
फिर यूपी में कांशीराम-मुलायम साथ आए और सपा-बसपा ने चुनाव पूर्व गठबंधन कर चुनाव लड़ा और सरकार बना ली। मुलायम सिंह यादव फिर सीएम बन गये पर गेस्ट हाऊस कांड के चलते बसपा का नाता सपा से टूट गया। इसके बाद बीजेपी के समर्थन से मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं, पर यह भी गठजोड़ लंबा नहीं चला।
इसके बाद 1996 विधानसभा चुनावों में कोई दल बहुमत हासिल नहीं कर सका और बीजेपी और बसपा फिर साथ आए। इस बार 6-6 महीने के मुख्यमंत्री पर सहमति बनी। देश में गठबंधन की सियासत का ये नया पड़ाव माना गया क्योंकि इस तरह का प्रयोग पहले कभी नहीं हुआ था। इस गठंधन के तहत बसपा से मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनीं। बीजेपी भी सरकार में शामिल हुई लेकिन 6 महीने बाद ही ये गठबंधन टूट गया, क्योंकि मायावती ने कल्याण सिंह को सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया।
…और मुलायम ने बना ली यूपी में सरकार
इसके बाद वर्ष 2002 में हुए विधानसभा चुनावों में किसी दल को बहुमत नहीं मिला। तब फिर बीजेपी के ही सहयोग से मायावती तीसरी बार सीएम बनीं। करीब डेढ़ साल बीतने के बाद मतभेद इतने बढ़े कि मायावती ने तत्कालीन राज्यपाल से सरकार बर्खास्तगी की सिफारिश कर दी। भाजपा ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। कई नाटकीय घटनाक्रम हुए। इस बीच भाजपा के समर्थकों और बसपा नेताओं को तोड़कर मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सरकार बनी।
लेकिन इसके बाद उत्तर प्रदेश की जनता से बहुमत की तरफ जाना पसंद किया और 2007 में बसपा को पूर्ण बहुमत सौंपा, फिर 2012 में समाजवादी पार्टी को और 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी सत्ता में आई। वैसे 2017 बीजेपी के साथ सुभासपा का गठबंधन था लेकिन वह बीच सरकार में टूट गया और चूंकि बीजेपी अपने दम पर बहुमत पार थी लिहाजा सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ा।
अभी तक अखिलेश को ‘सूट’ नहीं किया कोई गठबंधन
वैसे मुलायम सिंह यादव के बाद उनके पुत्र अखिलेश यादव ने भी खूब गठबंधन किए। 2017 विधानसभा चुनावों में सपा का कांग्रेस के साथ गठबंधन हुआ लेकिन जनता ने इसे पूरी तरह से नकार दिया। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश और मायावती साथ आए लेकिन ये गठबंधन भी महज 6 महीने ही चल सका।हां, इस गठबंधन का लाभ बीएसपी को जरूर मिला और उसने लाेकसभा में 10 सीटें हासिल कर लीं, बता दें 2014 में बीएसपी को एक भी लोकसभा सीट नहीं मिल सकी थी। अब 2022 विधानसभा चुनावों को लेकरअखिलेश यादव छोटे दलों को अपने साथ जोड़ते हुए एक बड़ा गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं। अब देखना ये होगा कि उत्तर प्रदेश की जनता क्या फैसला करती है?
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