ल्ली के अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में केंद्रीय सूचना आयुक्त उदय महुरकर और चिरायु पंडित द्वारा लिखित पुस्तक ’वीर सवारकर; दी मैन हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टीशन’ के विमोचन समारोह मंें प्रकट हुये विचारों को लेकर न केवल विवाद छिड़ा हुआ है बल्कि सावरकर रूपी उजाले पर कालिख पोतने की कोशिश बुद्धि के दिवालियापन को दर्शाती है। इस प्रकार की स्वार्थप्रेरित, राष्ट्र तोड़क, उद्देश्यहीन, उच्छृंखल, विध्वंसात्मक विरोध से किसी का भी हित सधता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। इस तरह का विरोध कोई नई बात नहीं है, न ही उससे उन व्यक्तियों अथवा संस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिनकी ऐसी आलोचना की जाती है। यह तो समय, शक्ति, अर्थ एवं सोच का अपव्यय है। विभिन्न राजनैतिक दलों, कांग्रेस एवं वामपंथी दल ऐसा कोई अवसर नहीं छोड़ते जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उससे जुड़े शीर्ष राष्ट्रनायकों की छवि को तार-तार न करते हो। यह तो सर्वविदित है कि वीर दामोदर सावरकर को बदनाम करने की लगातार कोशिश हो रही है, लेकिन इन विरोधों के बावजूद वे और उनका व्यक्तित्व अधिक निखार पाता रहा है।
विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर सेनानी, महान देशभक्त, ओजस्वी वक्ता, दूरदर्शी राजनेता, इतिहासकार, एक बहुत निराले साहित्यकार-कवि और प्रखर राष्ट्रवादी थे। उन पर लिखी गयी यह पुस्तक एवं इसका विमोचन करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान के बाद कि आजादी के बाद वीर सावरकर को बदनाम करने की मुहिम चली थी, पर विवाद गहराया हुआ है। न केवल मोहन भागवत बल्कि रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के यह कहने पर कि सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने पर दया याचिका दायर की थी, राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने भी कहा कि सावरकर के बारे में ऐतिहासिक तथ्य है कि उन्होंने अपनी रिहाई के लिए माफीनामा लिखा था। जबकि सावरकर के पोते रंजीत सावरकर ने कहा है कि यह माफीनामा नहीं था बल्कि जेल में बंद सभी क्रांतिकारियों की रिहाई के लिए यह एक दया याचिका थी।
संघ एवं सावरकर के विरोध की आंधी चलते हुए पचहतर वर्ष हो गये हैं, ऐसे लोग, राजनीतिक दल एवं राष्ट्र-विरोधी ताकते निरन्तर यह विरोध कर रहे हैं। इस दृष्टि से संघ एवं उसके नायकों का विरोध कोई नई बात नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि विरोध इनकी नियति है। आश्चर्य की बात है कि विरोध की तीव्रता एवं दीर्घता के बावजूद संघ के अस्तित्व पर कोई आंच नहीं आ सकी है। सावरकर की गणना दुनिया के चर्चित राष्ट्रनायकों में आती है। जो बहुचर्चित होता है, उसका विरोध भी उतना ही तीक्ष्ण औा तेजधार होता है। पर विरोध का भी कोई उद्देश्य एवं स्तर होता है। निरुद्देश्य एवं स्तरहीन विरोध, विरोधी खेमे, निराश एवं हताश राजनीतिक दलों एवं नेताओं की स्वार्थपूर्ण मनोवृत्ति, ईष्र्या, विध्वंस एवं मानसिक दिवालियापन की नीति का स्वयंभू प्रमाण बन जाता है। ये राष्ट्र-विरोधी ताकते हैं, जो सशक्त भारत के निर्माण में तरह-तरह की बाधाएं डालती है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने तभी कहा है कि आज संघ और सावरकर पर बहुत टीका टिप्पणी हो रही है। इनका असल मकसद दूसरा है। इसके बाद नंबर लगेगा स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती और योगी अरविंद का। क्योंकि भारत की जो राष्ट्रीयता है उसका प्रथम उद्घोष इन तीनों ने किया है।
सावरकर का जीवन-दर्शन एवं राष्ट्र-निर्माण में योगदान अविस्मरणीय है, आधार-स्तंभ एवं प्रकाश-किरण है। उनकी प्रेरणाएं एवं शिक्षाएं इसलिये प्रकाश-स्तंभ हैं कि उनमें नये भारत को निर्मित करने की क्षमता है। उन्होंने एक भारत और मजबूत भारत की कल्पना की जिसे साकार करने का संकल्प हर भारतीय के मन में है। हम आजाद हो गये, लेकिन हमारी मानसिकता अभी भी गुलामी की मानसिकता को ओढ़े हैं। इन्हीं राजनीतिक स्वार्थो एवं गुलामी मानसिकता से जुड़े लोगों ने ही वीर सावरकर के खिलाफ झूठ फैलाया है। बार-बार यह कहा गया कि सावरकर ने ब्रिटिश सरकार के सामने कई बार माफीनामा लिखा। लेकिन रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के अनुुसार सच्चाई यह है कि दया याचिका उन्होंने खुद को रिहा करने के लिए नहीं दाखिल की थी। एक सामान्य कैदी अपने लिए दया याचिका दायर कर सकता है। महात्मा गांधी ने उन्हें माफीनामा दायर करने के लिए कहा था। महात्मा गांधी के कहने पर उन्होंने दया याचिका दायर की। महात्मा गांधी ने सावरकरजी को रिहा करने की अपील भी की थी, उन्होंने कहा था कि जिस तरह से आजादी हासिल करने के लिए हम शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन चला रहे हैं, वैसे ही सावरकर भी आंदोलन चलाएंगे। सावरकरजी की तरफ से माफीनामा लिखने की बात बेबुनियाद और गलत है।’
सावरकर के पोते रंजीत सावरकर ने स्पष्ट किया है कि यह माफीनामा नहीं था बल्कि जेल में बंद यह सभी क्रांतिकारियों के लिए एक दया-याचिका थी। दूसरी बात इसे महात्मा गांधी के कहने पर लिखा गया था। गांधीजी सावरकर को अपना छोटा भाई मानते थे। रंजीत सावरकर ने कहा, ’मुझे यह नहीं पता कि गांधीजी क्या व्यक्तिगत रूप से ऐसा करने के लिए सावरकरजी से कहा था, लेकिन गांधीजी की ओर से 25 जनवरी, 1920 को सावरकर को लिखा गया पत्र मेरे पास है। राजनाथजी जरूर इस पत्र अथवा किसी अन्य पत्र के बारे में जिसके बारे में मुझे जानकारी नहीं है, उसका जिक्र कर रहे होंगे। मार्च 1920 में यंग इंडिया में गांधीजी का एक लेख छपा था। इस लेख में गांधीजी ने राजनीतिक क्रांतिकारियों की रिहाई वाले सावरकर की अर्जियों का समर्थन किया था। गांधीजी ने सावरकर को भी अर्जी दायर करने की सलाह दी थी।’ इन साक्ष्यों एवं तथ्यों के बावजूद इस विषय को विवादास्पद बनाकर राजनीतिक दल अपने स्वार्थों की रोटियां सेक रहे हैं, जो राष्ट्र-विरोधी कृत्य है। जबकि सावरकरजी के जीवन का उद्देश्य है- निज संस्कृति को बल देना, उज्ज्वल आचरण, सात्विक वृत्ति एवं स्व-पहचान। भारतीय जनता के बड़े भाग में राष्ट्रीयता एवं स्व-संस्कृति की कमी को दूर करना ही सावरकरजी के जन्म एवं जीवन का ध्येय था। वे विश्वभर के क्रांतिकारियों में अद्वितीय थे। उनका नाम ही भारतीय क्रांतिकारियों के लिए उनका संदेश था। उनकी पुस्तकें क्रांतिकारियों के लिए गीता के समान थीं।
वीर सावरकर जैसे बहुत कम क्रांतिकारी एवं देशभक्त होते हैं जिनके तन में जितनी ज्वाला हो उतना ही उफान मन में भी हो। उनकी कलम में चिंगारी थी, उसके कार्यों में भी क्रांति की अग्नि धधकती थी। वीर सावरकर ऐसे महान सपूत थे जिनकी कविताएं एवं विचार भी क्रांति मचाते थे और वह स्वयं भी महान् क्रांतिकारी थे। उनमें तेज भी था, तप भी था और त्याग भी था। राष्ट्रीय एकता और समरसता उनमें कूट कूट कर भरी हुई थी। रत्नागिरी आंदोलन के समय उन्होंने जातिगत भेदभाव मिटाने का जो कार्य किया वह अनुकरणीय था। वहां उन्होंने दलितों को मंदिरों में प्रवेश के लिए सराहनीय अभियान चलाया। महात्मा गांधी ने तब खुले मंच से सावरकर की इस मुहिम की प्रशंसा की थी, भले ही आजादी के माध्यमों के बारे में गांधीजी और सावरकर का नजरिया अलग-अलग था। सावरकर हिन्दू राष्ट्र एवं हिन्दू संस्कृति की बात करते थे, यही उनके विरोध का बड़ा कारण बना है।
भारत को सशक्त हिन्दू राष्ट्र के रूप में उभरते हुए देखना अनेक राष्ट्र-विरोधी लोगों का मुख्य एजेंडा रहा है। ऐसे ही निन्दक एवं आलोचक लोगों को सब कुछ गलत ही गलत दिखाई देता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कहीं भी आहट भी हो जाती है तो भूकम्प-सा आ जाता है। मजे की बात तो यह है कि इन तथाकथित राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं को संघ की एक भी विशेषता दिखाई नहीं देती। जबकि संघ में राष्ट्र-निर्माण के लिये कितने रचनात्मक एवं सृजनात्मक काम हो रहे हैं। निन्दा का वातूल संघ को विचलित नहीं कर पाता एवं प्रशंसा की थपकियां उसे प्रमत्त नहीं बना सकती- ऐसा है अनूठा एवं विलक्षण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उसका समूचा संगठनात्मक ढांचा। संघ के नेतृत्व ने निन्दा और प्रशंसा- दोनों को सहना सीखा है, इसलिये संघ एवं उनके नायक महान् है। संघ पर कीचड़ उछालने की जो हरकते हो रही है, उससे संघ का वर्चस्व धूमिल होने वाला नहीं हैं। क्योंकि इसकी नीति विशुद्ध राष्ट्र-निर्माण की है और सैद्धान्तिक आधार पवित्रता-पुष्ट है। विरोध करने वाले व्यक्ति स्वयं भी इस बात को महसूस करते हैं। फिर भी आम-जनता को गुमराह करने के लिये और उनका मनोबल कमजोर करने के लिये जो भी राजनीतिक दल एवं नेता उजालों पर कालिख पोत रहे हैं, इससे उन्हीं के हाथ काले होने की संभावना है। ऐसे लोगों को सद्बुद्धि आये, वे अपना समय एवं श्रम किसी राष्ट्र-निर्माण के रचनात्मक काम में लगायें तो राष्ट्र की सच्ची सेवा हो सकती है।
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