हम वही देखते हैं, जो सामने घटित होता है। पर यह क्यों घटित हुआ या कौन किसलिए घटित करता है? यह वक्त ही जान सकता है। राजनीति में दूसरी लहर के दौरान आॅक्सीजन की खपत को लेकर घमासान छिड़ा हुआ है जो हैरान भी कर रहा है और राजनीतिक दुर्भावनाओं को उजागर भी कर रहा है। दरअसल दूसरी लहर के दौरान राजधानी दिल्ली में आॅक्सीजन को लेकर हाहाकार मचा था। उस दौरान अस्पतालों में आॅक्सीजन की खपत की जांच करने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी बनाई थी। इस कमेटी की अंतरिम रिपोर्ट ने जबर्दस्त विवाद खड़ा कर दिया है। अंतरिम रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली ने अपनी जरूरत से चार गुना ज्यादा आॅक्सीजन की मांग के लिये दबाव बनाया। इसका असर देश के बारह राज्यों पर पड़ा और उन्हें जरूरत के मुताबिक आॅक्सीजन नहीं मिल पाई। हांलाकि अंतिम रिपोर्ट आना बाकी है। प्रश्न अंतरिम या अंतिम रिपोर्ट का नहीं है, प्रश्न है कि देश की व्यवस्थाओं को आहत करने का। प्रश्न यह भी है कि जीवन-सुरक्षा से जुड़े मसलों पर राजनीति क्यों और कब तक होती रहेगी?
गांधी के तीन बंदरों की तरह-वक्त देखता नहीं, अनुमान लगाता है। वक्त बोलता नहीं, संदेश देता है। वक्त सुनता नहीं, महसूस करता है। आदमी तब सच बोलता है, जब किसी ओर से उसे छुपा नहीं सकता, पर वक्त सदैव ही सच को उद्घाटित कर देता है। एक बड़ा सच यह है कि कोरोना की तीसरी लहर की संभावनाओं से एक बार फिर जीवन पर खतरे मंडराने की आशंकाएं तीव्र है और बावजूद हम इसके प्रति लापरवाही बरत रहे हैं। भारत में कोरोना की दूसरी लहर उतार पर है लेकिन तीसरी लहर का खतरा है, उसके साथ डेल्टा और डेल्टा प्लस जीवाणु के फैलने का खतरा भी दिखाई पड़ने लगा है। डेल्टा प्लस जीवाणु काफी खतरनाक है। इसने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में दुबारा कोहराम मचा दिया है। अभी दूसरी लहर का असर देश के 75 जिलों में 10 प्रतिशत और 92 जिलों में 5 प्रतिशत तक बना हुआ है। यदि लोगों ने सावधानी नहीं बरती तो अन्य सैकड़ों जिलों में फैलते हुए इसे देर नहीं लगेगी। भारत के विभिन्न प्रांतों में अभी तक वैसे तो नए जीवाणु के मरीज बहुत कम संख्या में पाए गए हैं लेकिन यदि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे सतर्क देशों में यह फैल सकता है तो भारत में तो इसके संक्रमण की गुंजाइश बहुत ज्यादा है।
काल सिर्फ युग के साथ नहीं बदलता। दिनों के साथ बदलता है और कभी-कभी घंटों में भी। ऐसा ही योग दिवस के दिन अचानक देखने को मिला, जब देश भर में ‘अस्सी लाख’ से अधिक टीके एक दिन में लग गए, यह अच्छा-सा लगने वाला रिकाॅर्ड भी कई विरोधियों की नींद उड़ाने का कारण बन गया़। वे सोचने लगे कि हमारे रहते ऐसा रिकार्ड कैसे बन सकता है? इसलिए कहने लगे कि इसमें जरूर झोल है। टीके लगें तो पस्त और न लगे तो मस्त! यह कैसी मानसिकता है? यह कैसी राष्ट्रीयता है? यह कैसा विरोधाभास है?
इसी बीच जम्मू-कश्मीर के नेताओं से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बैठक की, उधर पाकिस्तान ने ड्रोन से जम्मू-कश्मीर के हवाई अड्डा परिसर में एयरबेस पर हमला कर दिया। घाटी में चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ करने की संभावनाओं को तलाशने के लिये घाटी के प्रमुख राजनीतिक दलों को इसमें इस शर्त पर बुलाया गया था कि वे पाकिस्तान की वकालत का राग नहीं अलापेंगे। लेकिन फारूख अब्दुला प्रधानमंत्री के ‘दावतनामे’ को कबूल करने के साथ बोले कि हम उनसे अपनी बात कहेंगे, लेकिन महबूबा मुफ्ती ने मीडिया के आगे ही अपने दिल की बात कह दी कि पाकिस्तान से सरकार बात करे। अब इस मिटिंग एवं घाटी के नेताओं की पाकिस्तानपरस्ती को लेकर मीडिया में गर्मागर्मा बहस हो रही है, ऐसा लग रहा है बिलों में दूबके सांप बाहर आते ही फूफकारने लगे हैं।
राजनेताओं एवं राजनीतिक दलों के भाग्य निर्माता प्रशांत किशोर इनदिनों प. बंगाल चुनाव के बाद काफी सुर्खियों में है। उन्होंने आगामी आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को परास्त करने की ठान ली है, लेकिन उन्हें किसी एक दल में ऐसी क्षमता नजर नहीं आ रही है जो भाजपा को परास्त कर सके, इसलिये वे महागठबंधन की संभावनाओं को तलाशते हुए एक ही सप्ताह में तीन बार शरद पवार से मीटिंग कर चुके हंै, राजनीतिक गुरु के इशारों पर दिल्ली में विभिन्न दलों की एक आधे-अधूरे मन से की गयी बैठक भी बेअसर हो गयी है।
इन राजनीतिक खबरों के बीच देश एक और समस्या से रू-ब-रू है। यह समस्या है धर्मांतरण की। एक हजार बच्चों-बड़ों का ‘धर्मांतरण’ कराने वाले ‘इंटरनेशनल गैंग’ के कुछ लोगों की गिरफ्तारी ने इस समस्या से जुड़े अनेक घातक पहलुओं को उजागर किया है। सबसे अधिक चैंकाने वाला तथ्य यह है कि कई मूक-बधिर बच्चों को मुसलमान बनाया गया है। प्रश्न उठा कि उनकी सहमति कैसे ली गई? कई माता-पिताओं ने भी ऐसी आशंकाओं की पुष्टि की। जम्मू-कश्मीर में दो सिख बालिकाओं को मुसलमान बनाने से सिख समुदाय की नाराजगी की सामने आ रही है। कश्मीर से इन दो सिख लड़कियों का कथित तौर पर अपहरण कर लिया गया
और उन्हें इस्लाम में परिवर्तित कर दिया गया है। इनमें से एक लड़की की शादी मुस्लिम लड़के से करा दी गई थी जो अभी भी लापता है। जबरन धर्म परिवर्तन के बढ़ते मामले राजनीतिक प्रेरित है, आगामी चुनावों के मध्येनजर इस तरह की अराजकता एवं अस्थिरता की स्थितियां सोची-समझी रणनीति एवं षडयंत्र के अन्तर्गत रची जा रही है। धर्मांतरण की इन कोशिशों पर कुछ का कहना रहा कि यह चुनाव से पहले उत्तरप्रदेश में धार्मिक धु्रर्वीकरण की कोशिश है, कुछ का कहना है कि इनका आतंक कनेक्शन भी संभव है और संभावनाएं ये भी है कि कुछ दुश्मन राष्ट्र इन घटनाओं से देश में अशांति फैलाना चाहते हंै। इन घटनाओं में विदेशों से आए धन के लेन-देन के दस्तावेज भी मिले हैं। ये हादसा नहीं है। हादसे होते हैं, कराये नहीं जाते। होने वाले हादसों के प्रति संवेदना होती है, किये जाने वाले हादसों के प्रति पीड़ा। एक प्रतिक्रिया होती है। एक प्रतिशोध।
इन राष्ट्र को आहत करने वाली स्थितियों के बीच किसान अभी भी दिल्ली की सीमाओं पर डटे हैं, वे कब क्या कर बैठेंगे, कहा नहीं जा सकता? लेकिन उनके कारण दिल्ली की जनता तो परेशान है। यह कैसा लोकतांत्रिक हट है? लेकिन देश इन खबरों से पीड़ित एवं परेशान तो है। गांधी का देश अस्थिर किया जा रहा है। गांधी के स्वप्न को तोड़ने के प्रयत्न हो रहे हैं, गांधी के मूल्य टूट रहे हैं। पूरा देश आहत है। पीड़ा से, शर्म से।
जब-जब देश आगे बढ़ने के लिए कदम उठाता है, धर्मांतरण, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, किसान जैसे आन्दोलन हमारी टांग खींच लेती है। हर बार के ये दंश किसी घटना की प्रतिक्रिया होते हैं। पर इस बार के दंशों की प्रतिक्रिया को राजनीति का रूप दिए जाने की भूमिका बनाई जा रही है। यह हमें पार ले जाने वाली नहीं मझधार में डुबोने वाली होगी। देश की विविधता, स्वरूप और संस्कृति को बांधे रखकर चलने वाले नेता, जिनकी मूर्तियों और चित्रों के सामने हम अपना सिर झुकाते हैं, पुष्प अर्पित करते हैं- वे अज्ञानी नहीं थे। उन्होंने अपने खून-पसीने से ”भारत-माँ“ के चरण पखारे थे। आज उन्हें ”अदूरदर्शी“ कहा जा रहा है।
आज के राजनैतिक दलों एवं उनके नेताओं का दुश्मन राष्ट्र, साम्प्रदायिक, असामाजिक और स्वार्थी तत्वों के साथ इस तरह का ”ताना-बाना“ हो गया है कि उससे निकलना मुश्किल हो गया है। सांप-छछूंदर की स्थिति है। न निकलते बनता है और न उगलते। वक्त कह रहा है कि पंथ निरपेक्षता संविधान में नहीं रहे, राष्ट्र के जीवन में रहे। विपक्षी राजनीतिज्ञ विश्वसनीय और नैतिक नहीं रहे जबकि सत्ता विश्वास एवं नैतिकता के बिना ठहरती नहीं। शेरनी के दूध के लिए सोने का पात्र चाहिए। राजनीतिक दल जब अपना राष्ट्रीय दायित्व नैतिकतापूर्ण नहीं निभा सके, तब सृजनशील सामाजिक संस्थाआंे का योगदान अधिक मूल्यवान साबित होता है। आवश्यकता है वे अपने सम्पूर्ण दायित्व के साथ आगे आयें। अंधेरे को कोसने से बेहतर है, हम एक मोमबत्ती जलाएं। अन्यथा वक्त आने पर, वक्त सबको सीख दे देगा।