ऑस्ट्रेलिया के कप्तान स्टीव स्मिथ पर जब सफाई देने के लिए जोर दिया गया कि उनकी टीम ने खुले आम गेंद से छेड़छाड़ करने की कोशिश क्यों की तो उन्होंने कहा हम ‘डेस्पीरेट’ थे यानी हर कीमत पर दक्षिण अफ्रीका को रोकने के लिए तड़प रहे थे। यह स्वीकारोक्ति न सिर्फ कलंकित ऑस्ट्रेलियाई कप्तान बल्कि समकालीन समाज की मन:स्थिति का निचोड़ है। ‘जीतने’ और ‘किसी भी कीमत पर जीतने’ के बीच के बारीक अंतर को न सिर्फ क्रिकेट के मैदान पर बल्कि समाज में भी मिटा दिया गया है।
आधुनिक खेल पागल कर देने वाली प्रतियोगी दुनिया के चरित्र का उदाहरण है, जहां साधनों से अधिक साध्य का महत्व है। खेल का रिश्ता अब उस ओलिंपिक भावना से नहीं रहा, जिसे आधुनिक ओलिंपिक खेलों के संस्थापक पीयरे डी कोबर्टिन ने यह कहकर परिभाषित किया था, ‘ओलिंपिक खेलों में जीतना नहीं, भाग लेना महत्वपूर्ण है, जीवन में जीत नहीं बल्कि संघर्ष महत्वपूर्ण है; जीतना नहीं बल्कि अच्छी तरह लड़ना जरूरी है।’ ओलिंपिक का ध्येय वाक्य शौकिया एथलीटों के बीते हुए जमाने का है, जहां खेल मुख्यत: फुर्सत की गतिविधि थी। उसी तरह यह धारणा भी गलत है कि क्रिकेट ‘जेंटलमेन्स गेम (भद्रजनों का खेल)’ है। यह खेल के औपनिवेशक भूतकाल से आया बनावटी विचार है, जहां ‘साम्राज्य’ खेल के नियमों से चलने का दावा करता था।
21वीं सदी में खेल एक स्तर पर अत्यधिक प्रतियोगी राष्ट्रवाद है, राष्ट्रों के बीच ‘युद्ध’, जहां खेल में राष्ट्रीय गौरव निहित है। कम्युनिस्ट व्यवस्था की श्रेष्ठता साबित करने की इच्छा शीत युद्ध के जमाने में सोवियत ब्लॉक के एथलीटों को सुनियोजित डोपिंग की ओर ले गई। वैश्विक मान्यता की इसी तड़प ने चीन को ओलिंपिक सफलता पर केंद्रित होकर महान दीवार तोड़ते देखा। और शायद ऑस्ट्रेलिया को प्रमुख क्रिकेटीय शक्ति साबित करने का जुनून स्मिथ की टीम को उस ओर ले गया, जिसे दक्षिण अफ्रीका की जीत रोकने के लिए की गई पूर्व निर्धारित धोखाधड़ी ही कहा जा सकता है।
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