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पशुधन की महत्ता बताता है बांदना पर्व, झारखंड के आदिवासी समाज के लिए है

इस समय झारखंड का हर कोना बांदना पर्व पर थिरक रहा है। गांव गुलजार हैं। पशुधन के साथ-साथ हर गांव में किसान कृषि यंत्रों की पूजा कर रहे हैं। इस लोक पर्व से गांव की सोंधी माटी महक उठी है। झारखंडी आदिवासी समाज का यह विशेष पर्व आदिकाल से चला आ रहा है। प्रकृति प्रेमी झारखंडी लोगों के सभी पर्व प्रकृति व कृषि से जुड़ाव रखते हैं। कृषि कार्य शुरू करने से धान काटने तक हर कदम पर अलग-अलग पर्व मनाने की परंपरा रही है।

इन्हीं पर्वों में एक है कार्तिक अमावस्या को मनाया जाने वाला बांदना पर्व। यहां इसे सोहराय के नाम से भी लोग पुकारते हैं। धान काटने के बाद खलिहान में सुरक्षित रखने के बाद मनाए जाने वाले इस पर्व के दौरान पशुधन से किसी भी तरह का कोई काम नहीं लिया जाता है, और ना ही कृषि यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है। इस दौरान इनकी विशेष देखभाल, सत्कार और पूजन-बंदन किया जाता है।

यह झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, ओडिशा और असम के आदिवासी बहुल इलाकों में भी मनाया जाता है। काली पूजा व दीपावली के साथ ही झारखंड में इस पर्व की धूम मच जाती है। इस अवसर पर झारखंडी समाज के लोग बैलों की पूजा करते हैं। बांदना पर ग्रामीण अपने घर-आंगन की साफ सफाई कर रंग-बिरंगी मिट्टी और प्राकृतिक रंगों से रंगाई करते हैं।

नेगाचार के हिसाब से यह परब कार्तिक अमावस्या के एक दिन पहले से पांच दिनों तक मनाया जाता है। पहले दिन घाउआ, दूसरे दिन अमावस की शाम को गठ पूजा और रात में धिंगवानी/दिजुआनि/जाहलिबुला के माध्यम से जागरण, तीसरे दिन गहाइल (गरइआ) पूजा, चौथे दिन बुड़ही बांदना (बरद खूंटा) एवं पांचवें दिन गुड़ी बांदना के रूप में मनाया जाता है।

कार्तिक माह के अमावस्या से पांच, सात या नौ दिन पूर्व से ही अपने घर के पशु जैसे गाय, बैल, भैंस आदि के सींग में तेल लगाया जाता है और उन्हेंं सजाया जाता है। बांदना पर्व के पहले दिन यानी अमावस के पहले दिन कांचि दुआरि देने का विधान है, जिसे घाउआ कहते हैं। रात भर गहाइल घर यानी गोशाला में घी के दीये जलाए जाते हैं। घर-घर में घाउआ जला कर लोग सेहरेइ गीत गाते हैं।

दूसरे दिन यानी अमावस के दिन गांव के लोग लाया, देहरी या पाहन के साथ शाम को गोधुली बेला में गठान टांड़ यानी जहां गांव के गाय-बैलों को एकत्र कर रखा जाता है, वहां जाते हैं। देहरी दिन भर निर्जल उपवास रहकर गठ पूजा करते हैं। गठ पूजा के बाद जिसकी गाय या बैल पूजा किए गए अंडे को फोड़ता है, उसका विशेष सम्मान किया जाता है। रात को उसी के घर से धिंगवानी का शुभारंभ होता है। रात भर ढोल, धमसा, मांदल के थाप पर अहिरा गाते हुए घर-घर जाकर गाय-बैल को जगाया जाता है।