वंशवाद, परिवारवाद और अपार भ्रष्टाचार करने के बाद भी राजनीति में सक्रिय रहना और पुनः सत्ता में आने का सपना साकार कर पाना इसी लोकतांत्रिक-व्यवस्था में संभव है, जहां विधायिका अपनी सुविधा के लिए कार्यपालिका पर दबाव बनाए रखती है और कभी-कभी न्यायपालिका का भी मनमाना उपयोग कर लेती है।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल के अठारह महीने इस कड़वे सच के साक्षी हैं। आज का अनेक समूहों में बंटा, अशांत और परस्पर संघर्षरत भारतीय लोकतंत्र के खोल में पल रही सामंतवादी दूषित मानसिकता का ही दुष्परिणाम है।
लोकतंत्र निश्चय ही समाज के लिए अत्यंत उत्तम व्यवस्था है। यह राजतंत्र और सामंतवाद के अनेक दोषों से स्वतः मुक्त है और समाज के प्रत्येक व्यक्ति को विकास का अधिकतम अवसर देने का शुभ प्रयत्न है किंतु इस व्यवस्था का क्रियान्वयन गंभीर आत्मानुशासन की अपेक्षा करता है।
यह आत्मानुशासन लोकतंत्र के दोनों घटक– नेता और जनता– दोनों के स्तर पर अनिवार्य है। इसके अभाव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था किस प्रकार भ्रष्ट होकर अपना अर्थ खोने लगती है इसके भयावह साक्ष्य आज पग-पग पर दिखाई देते हैं। कहीं एक दल दूसरे दल पर बिना प्रमाण के कीचड़ उछालता रहता है तो कहीं सत्ता में बैठे लोगों के इशारे पर अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के रास्ते रोके जा रहे हैं।
जन-आंदोलनों और प्रदर्शनों के नाम पर अराजकता, उद्दंडता और राष्ट्रध्वज के असम्मान का जो दुखद दृश्य पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर दिल्ली में लाल किले पर दिखाई दिया। वह अभी दूर की बात नहीं।
राजनीतिक दलों के हाथों की कठपुतली बने तथाकथित आंदोलनकारी समूहों की हिंसक उग्रता और निर्दोष-निहत्थे आंदोलनकारियों पर शासन में बैठे लोगों के इशारे पर पुलिस प्रशासन की क्रूरता– दोनों ही लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।
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