पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ७ जून को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रम में सम्मिलित हुये। विशेष अतिथि के रूप में उन्होंने वहॉ स्वयं सेवकों को संबोधित भी किया। उनका पूरा संबोधन राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर ही था।
इस संबंध में चर्चा करते हुये उन्होंने एक देश, एक झण्डा आवश्यक है यह बताया। आज की कांगे्रस अर्थात राहुल गांधी की कांग्रेस ने कर्नाटक में अपने शासनकाल में वहॉ के विधानसभा के चुनाव के ठीक पूर्व कर्नाटक के लिये अलग झण्डे का प्रारूप प्रस्तुत किया था। अब कांग्रेस को इसके बारे में सोचना चाहिये।
प्रधानमंत्री मोदी सबका साथ सबका विकास के मंत्र की व्याख्या करते समय १२५ करोड़ भारतीयों की ही बात करते हैं, तुष्टिकरण किसी का नहीं। कांग्रेस को इस बारे में भी सोचना चाहिये।
प्रणव मुखर्जी ने अपने संबोधन में यह भी कहा कि भारत की संस्कृति, सभ्यता सदियों पुरानी है। अनादिकाल से भारत में अनेक धर्म, संप्रदाय, संस्कृति के लोग आये और उन्हें हम भारतीयों ने अंगीकृत किया और वे यही के रह गये।
कांग्रेस को यह सोचना पड़ेगा कि भारत नवीन निर्माणाधीन राष्ट्र नही है। अर्थात सिर्फ १९४७ के बाद का भारत ही नहीं है। भारत सिर्फ नेहरू, गांधी डायनेस्टी का किंगडम नही है। अतएव प्रणव मुखर्जी के संबोधन को सही अर्थों में कांग्रेस को समझना चाहिये।
गुजरात चुनाव के समय और अभी कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय क्रिस्चियन आर्कबिशप द्वारा जो फतवा जारी हुए हंै राष्ट्रवाद के विरूद्ध और जिसे कि वेटीकन ने इंडोर्स किया है उसका विरोध कांग्रेस को करना चाहिये। चुनाव के समय देवबंद से जो फतवा जारी हुआ वह भी प्रणव मुखर्जी ने जो संबोधन किया था उससे मेल नही खाता है।
आज की वर्तमान कांग्रेस को हिंसा की राजनीति छोडऩा पड़ेगा। जिस प्रकार से शेर मानव के खून का यदि आदि हो जाता है तो उसके बिना वह रह नहीं सकता है। उसी प्रकार से कांग्रेस सत्ता की आदि हो चुकी है, सत्ता के बिना वह रह नही सकती है। इसलिये हिंसा का सहारा लेने या ङ्क्षहंसा को प्रोत्साहन देने पर आमादा है।
जिस प्रकार से गिद्ध की निगाह सिर्फ वहीं रहती है जहॉ किसी मृतक का शरीर पड़ा हो उसी प्रकार से कांग्रेस अध्यक्ष की तथा उनके नेताओं की निगाह वहीं रहती है कहॉ किसका शव पड़ा हुआ है। वह उस शव का मानव का शव किसी भारतवासी का शव न समझकर किसी दलित, किसी या किसी धर्मविशेष के व्यक्ति का कहकर व्याख्या करती है। यह सब वोट के लिये बांटो और राज करो की राजनीति करने के लिये करती है।
राष्ट्रवादियों के विरुद्ध साजिश थी कोरेगांव हिंसा –मनमोहन सरकार के दौरान तत्कालीन गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह ने लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में प्रतिबंधित माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके 74 फ्रंट संगठनों का ब्यौरा दिया था। माओवादियों की रिहाई के काम में लगे कमेटी फॉर रिलीज ऑफ पॉलिटिकल प्रीजनर्स (सीआरपीपी) का भी नाम शामिल था। इसी संगठन के लोगों को कांग्रेस से कानूनी और आर्थिक मदद मिलने की बात का पत्र में उल्लेख है। अब सवाल उठता है कि जिन संगठनों को उनकी सरकार ने ही नक्सली और आतंकवादी माना था उन्हें पार्टी की ओर से क्यों सहायता उपलब्ध कराई गई। पत्र में गिरफ्तार माओवादी नेताओं की रिहाई के लिए कांग्रेस से मिलने वाले सहयोग की बात कही गई है। पत्र के अनुसार कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कानूनी और आर्थिक सहयोग देने की बात कही है। इस संबंध में जिग्नेश मेवानी की सेवाएं लेने का निर्देश दिया गया है। चि_ी के मुताबिक कांग्रेस पार्टी कथित तौर पर माओवादियों को आर्थिक साधन मुहैया करा रही थी। पुणे पुलिस को छापेमारी के दौरान एक चि_ी मिली जिसे कामरेड रू ने 2 जनवरी 2018 को लिखी थी। माओवादी, यलगार परिषद को लिखे गए पत्र में कांग्रेस के बारे में जिक्र कर रहे है कि दलित आंदोलन को आगे बढ़ाने में मदद देंगे। इसके साथ ही उनका कहना है कि जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद उनके और कांग्रेस के बीच सेतु का कार्य करेंगे। यही नहीं आंबेडकर के भतीजे प्रकाश आंबेडकर के बारे में भी कहा गया है कि वो माओवादियों के साथ मिलकर दलित आंदोलन से किस तरह का फायदा उठाना चाहते हैं।
आज जैसा कि समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है कि प्रधानमंत्री मोदी की हत्या की साजिश और कोरेगांव हिंसा दोनों जुड़े हुए हैं और इस षडयंत्र में कांगे्रस का भी हाथ है, यह संकेत मिलता है।
अतएव कांग्रेस को पुन: विचार करना चाहिये कि सत्ता प्राप्ति के लिये हिंसा का रास्ता अख्तियार करना उचित है या अनुचित।
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