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Special Editorial: राहुल गांधी कालिदास के रोल में

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Tags: कालिदास के रोल में राहुल गांधी, दिखे।नेहरू-गांधी परिवार के अंधभक्त, सामुहिक आत्महत्या, जिहादी सेक्युलर मीडिया, मोदी-शाह, विपक्षी पार्टियों में एकजुटता, 2019 लोकसभा चुनाव, आरएसएस मोदी फोबिया
 
Description: राहुल गांधी आज बैंगलोर में कालिदास का रोल अदा करते हुये दिखे।नेहरू-गांधी परिवार के अंधभक्त सामुहिक आत्महत्या की ओर क्यों बढ़ रहे हैं? हमें जिहादी सेक्युलर मीडिया से भी शिकायत है। वे क्यों राहुल गांधी को कालिदास बनने पर और कांग्रेस पार्टी को सामुहिक हत्या की ओर ढ़केल रहे हैं।
आज एक विश£ेषण प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है : 13 राज्य-15 दल: मोदी-शाह के सामने 2019 में 429 सीटों का चक्रव्यूह।
२०१४ के लोकसभा चुनाव के समय भी मोदी फोबिया से ग्रस्त जिहादी सेक्युलर कुछ बुद्धिजीवी यह घोषित किये थे कि यदि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन जाएंगे तो वे देश छोड़ देंगे। मोदी जी प्रधानमंत्री बन गये और किसी ने देश छोड़ा भी नहीं।
उक्त विश£ेषण में कहा गया है कि कर्नाटक में मिली जीत ने विपक्षी पार्टियों में एकजुटता को लेकर एक नया जोश भर दिया है. इसी जज्बे के साथ विपक्ष ने 2019 में मोदी के ‘विजय रथÓ को रोकने का फॉर्मूला तैयार किया है. इस फॉर्मूले के जरिए देश के 13 राज्यों में 15 दल मिलकर 429 लोकसभा सीटों पर मोदी-शाह के सामने पेंच फंसा सकते हैं. 20 राज्यों में बीजेपी का परचम लहराने वाली इस जोड़ी के सामने विपक्ष ने ऐसा चक्रव्यूह रचा है, जिसे तोडऩा आसान नहीं होगा।
कर्नाटक की चर्चा की है। जबकि हकीकत यह है कि जेडीएस मैसुर और महाराष्ट्र से लगे क्षेत्र तक ही सीमित है। वहॉ पर भाजपा का कोई असर नही है। जेडीएस के प्रतिद्वंदी वहॉ कांग्रेस ही है। शेष कर्नाटक में भाजपा की प्रतिद्वंदी कांग्रेस है। इसलिये आज के गठबंधन का भाजपा पर कुछ भी असर नहीं होने वाला है।
पश्चिम बंगाल की चर्चा करते हुये कहा गया है कि कांग्रेस टीएमसी मिलकर लोकसभा चुनाव में साथ उतर सकती है। मुमकीन है कि लेफ्ट भी साथ आ जाये। इस संबंध मेें आज सीताराम येचुरी की प्रतिक्रिया आई है कि बीजेपी को रोकने माकापा किसी कीमत पर नहीं मिलायेगा ममता से हाथ।
अब हम केरल का उदाहरण ले सकते हैं। केरल में कांगे्रस की प्रतिद्वंदी पार्टी वर्तमान में शासन कर रही कम्युनिस्ट पार्टियां ही है। यदि कांग्रेस और वर्तमान सत्तारूढ़ दल मिल भी जाये तो इसका भाजपा पर क्या असर पड़ेगा?
यही स्थिति तेलंगाना और आंध्रा की भी है।  अविभाजित आंध्रा में कांग्रेस की आंधी थी। विभाजित आंध्रा के समय किस प्रकार से आंध्रा में कांग्रेस के विरोध में हिंसा भड़की थी और इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी की मुर्तियों पर हथौड़े चले थे इसे याद करने के उपरांत राहुल गांधी जश्र मनाना भूल जाएंगे।
महाराष्ट्र में क्या एनसीपी और कांग्रेस के साथ शिवसेना आयेगी? शिवसेना और भाजपा तो पिछले विधानसभा चुनाव के समय भी अलग-अलग लड़ चुके हैं।
जहॉ तक उत्तरप्रदेश का सवाल है वहॉ पर सोनिया गांधी आज बैंगलोर मेें मायावती से जिस प्रकार से मिल रही थी जैसे बिछड़ी हुई बहनें आपस में मिलती हैं। यह फिल्मी ड्रामा के अलावा कुछ नहीं है। कांग्रेस की उत्तरप्रदेश में कुछ हस्ती ही नहीं है। वह वहॉ जीरो है।
बिहार में भी यदि कांग्रेस जेडीयू से मिल भी जाये तो यह कोई नई बात नही है। पहले भी ऐसा होते रहा है और वह जेडीयू तथा भाजपा गठबंधन से हारती रही है।
छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस बंट चुकी है। जोगी कांग्रेस के प्रभावशाली नेता और गांधी फैमिली के सबसे नजदीक रहे कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बना चुके हैं। राहुल गांधी के अभी छत्तीसगढ़ प्रवास के समय उन्होंने दिखा दिया कि उनकी दुश्मनी राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी से है।
मध्यप्रदेश में तो १९८४ के सिक्ख विरोधी दंगो में कुख्यात कमलनाथ कांग्रेस अध्यक्ष बनने के उपरांत वहॉ के अन्य नेता दिग्विजय सिंह तथा सिंधिया नाराज चल रहे हैं। आज का ही समाचार है कि एक प्रभावशाली कांग्रेस नेता मिनाक्षी नटराजन ने त्याग पत्र दे दिया है।
राजस्थान में भी कांग्रेस को लोहे के चने चबाने पड़ेंगे। गहलोत के दिल्ली में जाने के बाद राजस्थान की कांग्रेस के पैर उखड़ चुके हैं।
कांग्रेस का वर्चस्व नार्थ-ईस्ट के प्रांतो में था। वहॉ कांग्रेस का सफाया हो चुका है। वहॉ के सभी प्रांतो में भाजपा का शासन है।
यह जरूर है कि कैथोलिक क्रिस्चियन सोनिया गांधी का इटली के वेटीकन से निकट संबंध है। इसलिये गुजरात विधानसभा चुनाव के समय भी ईसाई पादरी के फतवे जारी हुये थे। नेशनलिस्ट भाजपा को वोट न दें। इसका मतलब तो यही है कि एंटी नेशनल पार्टियों को वोट दें।
दिल्ली मेंं गांधी फैमिली का निवास है। वहॉ चर्चा हो सकती है पर मंदिर या मस्जिद नही। सोनिया गांधी नियमित रूप से दिल्ली के चर्च में जाती हैं।
राहुल गांधी फिरोज खान के पौत्र होने के नाते यह समझते हंै कि तुष्टिकरण की नीति पर चलने वाली कांग्रेस पार्टी की झोली में तो मुस्लिमों के वोट हैं। पर वैसा २०१९ में होने वाला नही है।
बहुरूपीये जनेऊधारी ब्राम्हण बनकर उन्होंने कर्नाटक में लिंगायत को हिन्दू से अलग करने की साजिश रची थी। इसके उपरांत भी लिंगायत भाजपा से दूर नहीं हुये और कांग्रेस का षडयंत्र वहॉ असफल हुआ।
राहुल गांधी आरएसएस फोबिया से ग्रस्त हैं। इसके अलावा मोदी फोबिया से तो वे ग्रस्त हैं ही। तमिलनाडु में वर्तमान में भाजपा का शासन है नही। वहॉ पर डीएमके और एआईएडीएमके तथा उनसे निकली अन्य पार्टियों का वर्चस्व रहा है वे ही शासन करती रही हैं।
अभी  तूतीकोरिन में जो हिंसात्मक आंदोलन करने के लिये भोले भाले लोगों को भड़काकर लाल झण्डे वालों ने राहुल गांधी को भी अपने गिरफ्त में ले लिया है। वे वहॉ पर गोली चलने से हुई बारह लोगों की मौत के लिये आरएसएस और मोदी को जिम्मेदार बताकर अपनी अपरिपक्वता ही जाहिर कर रहे हैं। यह पब्लिक है सब जानती है।
बीबीसी में आज जो लेख प्रकाशित हुआ है उसके अनसार तो राहुल गाध्ंाी अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी चला रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और कांग्रेस मुख्यालय का इतिहास और सोनिया गांधी की जीवनी लिखने वाले रशीद किदवई कहते हैं, “कांग्रेस की जो कमज़ोरी है उसे राहुल गांधी बख़ूबी समझ गए हैं कि कांग्रेस अपने बूते पर भाजपा को टक्कर नहीं दे पाएगी. ये राजनीतिक आकलन मददगार साबित हुआ कर्नाटक में सरकार के गठन में.”
“कहने को तो राहुल गांधी ने ये भी कहा है कि 2019 में अगर कांग्रेस सबसे बड़े राजनीतिक दल के तौर पर आई तो वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे. लेकिन ये बात उन्होंने कांग्रेस जन को उत्साहित करने के लिए कही है. आज सभी लोग जानते हैं कि 2019 में भाजपा के सामने कांग्रेस का सबसे बड़ी पार्टी होना बहुत मुश्किल है.”
रशीद किदवई कहते हैं, “ये कांग्रेस के नए नेता राहुल गांधी की सोच का नतीजा है जो समय के अनुकूल नजऱ आता है. समय की मजबूरी कहें या फिर राजनीतिक हालात का दबाव, राहुल गांधी को ये समझौता करना पड़ रहा है और इसमें कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं और रणनीतिकारों की सहमति भी नजऱ आती है.”
रशीद किदवई कहते हैं, “कांग्रेस एक राष्ट्रीय दल है और अकेली ऐसी पार्टी है जो भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में है. अगर उस राष्ट्रीय दल का सर्वोच्च नेता ये कह दे कि वो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं है क्योंकि चुनौती बीजेपी को सत्ता से हटाने की है और वो उद्देश्य ज्यादा महत्वपूर्ण और बड़ा है तो इसका पार्टी कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश नहीं जाएगा, वो बिल्कुल हताश हो जाएगा.”
“इसीलिए राहुल गांधी बिल्कुल स्पष्ट तौर पर ये कहने की स्थिति में नहीं हैं कि वो 2019 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं. साथ ही ये भी महत्वपूर्ण है कि जो क्षेत्रीय दल हैं जिनके बूते कांग्रेस बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने की रणनीति पर काम कर रही है उनके मन में ये लगभग साफ़ है कि 2019 में राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं है. हां ये ज़रूर है कि वो इस बात को खुलकर कहेंगे नहीं जब तक कि 2019 चुनाव के नतीजे सामने नहीं आ जाते.”
2014 के चुनाव में कांग्रेस को 44 सीटें आई थीं.
फज़ऱ् करें कि तमाम राज्यों में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन के ज़रिए कांग्रेस 80-90 सीटें जीतकर विपक्षी मोर्चे में सबसे बड़े दल के रूप में उभरती है तो उस वक्त भी क्या वो वैसी ही भूमिका में रहना स्वीकर करेगी जैसी कर्नाटक में उसने निभाई है?
कम से कम क्षेत्रीय दल तो ऐसा ही चाहेंगे. लेकिन अगर कांग्रेस को अपने बूते पर 100 का आंकड़ा पार कर गई तो हालात बदल सकते है लेकिन इस बारे में अभी से कोई भविष्य़वाणी करना ठीक नहीं होगा.
ये भी समझना ज़रूरी है कि अगर वो आज खुद के लिए प्रधानमंत्री पद का दावा मज़बूती से रखेंगे तो क्षेत्रीय दल छिटक जाएंगे.”
बीबीसी के लेख में अंत में कहा गया है कि   कुल मिलाकर कांग्रेस के लिए स्थिति तलवार की धार पर चलने जैसी है.
राजनीतिक मजबूरी और अस्तित्व का सवाल चाहे जितना ही गंभीर हो, अगर कार्यकर्ताओं में ये मैसेज चला गया कि कांग्रेस सत्ता की दौड़ में नहीं है, कांग्रेस का अध्यक्ष प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहता, तो कांग्रेस को उससे बहुत ज़्यादा राजनीतिक नुकसान भी हो सकता है.
कांग्रेस का संगठन कमज़ोर है, मात्र चार राज्यों में सरकार है, पार्टी का राष्ट्रीय चरित्र क्षेत्रीय दलों के हाथों ख़तरे में नजऱ आता है – ऐसे में राहुल गांधी को बहुत सोच-समझकर क़दम उठाने होंगे ताकि कांग्रेस का राष्ट्रीय चरित्र भी बचा रहे और क्षेत्रीय दल खुद को कांग्रेस का विकल्प न समझने लगें.
कर्नाटक में मुख्यमंत्री की कुर्सी क़ुर्बान कर कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने की जो अल्पकालिक रणनीति अपनाई है वो उसके लिए अस्तित्व का संकट भी पैदा कर सकती है.

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