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जमा करें संवेदनाओं एवं प्रेम के रिश्तों की पूंजी को

-ललित गर्ग –

आज हर इंसान दुःखी है। कुछ दुःख तो बाहर से आता है और बहुत सारा दुःख हमारे भीतर ही विद्यमान है। बाहर का दुःख पदार्थजनित है और भीतर का दुःख अपवित्र सोचजनित। लेकिन एक बात निश्चित है कि अगर भीतर से पैदा होने वाले दुःख की रोकथाम कर ली जाये यानी भीतर की दुनिया को पवित्र एवं पावन बना लिया जाये, निराशावादी लोगों से दूरी बना ली जाये, शुभ होने की उम्मीद रखी जाये, प्रेम, संवेदना एवं स्नेह के रिश्तों की पूंजी को जमा कर ली जाये तो बाहर से आनेवाला दुःख हमें बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं कर पायेगा।
बाहरी दुःखों को व्यक्त करने का माध्यम है रुदन-रोना। एक ही दुख को दो व्यक्ति अलग तरीके से अनुभव करते हैं। दुख का सामना करने का कोई एक सही तरीका होता भी नहीं। कुछ चुप रहकर दुख झेल जाते हैं, तो कुछ रो पड़ते हैं और कुछ बीती बातों को दूसरों से बांट कर मन हल्का कर लेते हैं। दूसरों का तरीका सही है या गलत, यह राय देने से बेहतर है, उन्हें उबरने का समय दें। अपना जरूरी साथ दें। रोना बुरा नहीं है। दूसरों के सामने खुद को रोने से रोकना भी गलत नहीं। दुखी हैं पर वजह नहीं पता, तो भी ठीक है। होता है ऐसा। यह नाटक नहीं है और न ही आप मूर्ख हैं। ये आपकी भावनाएं हैं। लेखिका हॉली रिऑर्डन कहती हैं, ‘निराशा के क्षणों में भरोसा रखें कि सब ठीक हो जाएगा। भले ही अभी ऐसा न लग रहा हो, पर जरूर सही हो जाएगा।’ हमें सुखी जीवन के कारणों की खोज करनी है। वे कारण हमारे भीतर हैं। हम अपने भीतर झांके और उन सूत्रों की खोज करें। सुख का यही सबसे अच्छा उपाय है। सम्यक ज्ञान, दर्शन और चरित्र का प्रयोग और उपयोग हो तो बहुत बड़ा परिवर्तन आ सकता है।
कभी-कभी दुःखों का कारण हमारे रिश्ते भी बनते हैं। दरअसल, जिन रिश्तों से सिवाय कष्ट और पीड़ा के कुछ हासिल नहीं होता, उनमें अपनी भावनाएं और ऊर्जा निवेश करने से बचने में ही समझदारी है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आप खुद को बदलना शुरू कर दें। आपको केवल उन रिश्तों से ध्यान हटाने की जरूरत है, जो आपके तमाम प्रयासों के बावजूद सिवा कष्ट और पीड़ा के कुछ नहीं दे पा रहे हैं। ज्यादातर समय हम मुखौटा ओढ़े रहते हैं। जैसे भीतर होते हैं, वैसे ही बाहर बने रहने से बचते हैं। डरते हैं, खुद को छिपाए रहते हैं। आप क्या चाहते हैं और क्या हैं, इसे सम्मान देना सीखें। अपनी जिंदगी जिएं। अफ्रीकी-अमेरिकी लेखिका माया एंजिलो कहती हैं, ‘साहस सबसे जरूरी गुण है। इसके साथ के बिना किसी भी अन्य गुण को जीवन में लाया नहीं जा सकता।’ इसी से दुःख मुक्ति भी संभव है।
सुख और दुःख अनादिकाल से रहे हैं और रहेंगे। यह दुनिया न तो कभी पूर्ण रूप से सुखी रही है, न पूर्ण रूप से दुःखी। कम या ज्यादा मात्रा में हर समय और हर काल में सुख और दुःख अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। जिन्हें हम अवतार मानते हैं, उनके समय में भी दुःख-दैन्य की स्थिति रही। क्योंकि इसकी फिलॉस्फी कर्म और प्रारब्ध के साथ भी जुड़ी हुई है। यह प्रश्न आप पर ही निर्भर करता है कि सुख-दुःख को आप ज्ञानी की तरह काटना चाहते हैं या अज्ञानी और मूर्ख की तरह?
जीवन में नैतिक, पवित्र और प्रामाणिक बनेंगे तो न अमीरी सताएगी, न गरीबी। तभी आप गरीबी का अनुभव नहीं करेंगे और अमीरी का दुरुपयोग नहीं करेंगे। दोनों की अनुभूति में सम रहेंगे। गरीबी का अनुभव नहीं होगा तो दुःखी होने का प्रश्न ही नहीं होगा। अमीरी का अहंकार नहीं होगा तो दुःख पैदा करने वाले प्रसंग नहीं आयेंगे। दुःख के कारणों को कम करने का तरीका है, सकारात्मक एवं सौहार्दपूर्ण शक्तियों को संगठित करना। बैंक में सभी पैसे जमा करते हैं लेकिन अपने लोगों का प्यार, सहानुभूति, करुणा, स्नेह-भावना, आसपास के लोग, उनकी संवेदनाएं जो आपकी ताकत हैं, वो कहां जमा करते हैं? जमा नहीं करेंगे, तो वक्त पर एक-दूसरे के काम कैसे आएंगे? इसे प्रसिद्ध साहित्यकार पाउलो कोहेलो ने अपने उपन्यास द जाहिर में उपहार बैंक कहा है।
ये ख्याल अपने आप में कितना उम्दा है कि आप अपने लिए एक ऐसे लोगों का समूह तैयार करें, जो वक्त पड़ने पर आपके काम आए। नेल्सन मंडेला कहते थे, ‘पैसा आपको कभी खुश नहीं कर सकता। आपको खुश करते हैं आपके आसपास के लोग। आप अपने लिए दूसरों से जो चाहते हैं, वो उनके लिए करें। फिर देखिए, देखते ही देखते आपके आसपास ऐसे लोग जमा हो जाएंगे, जो आपकी तरह सोच रखते होंगे।’सामाजिक संबंधों का एक ताना-बाना हमारे इर्द-गिर्द बना हुआ है, लेकिन उनको स्थायित्व देने, वक्त-जरूरत उनसे लाभ लेने की सोच को विकसित करना जरूरी है। संबंध स्थायी हो अथवा अस्थायी, वह हमें बांधते हैं। वक्त का हर लम्हा कर्म हेतु ही हमको प्रेरित करता है। बीते हुए लम्हों को हम पकड़ नहीं पाते हैं। समय ही हमको जिताता है और समय से ही हम हार जाते हैं। कर्म से ही उद्योग बनता है। घर परिवार से हमारा समन्वय होता है तो निजता तिरोहित हो जाती है और प्रभुता प्रतिष्ठित हो जाती है। इसी से दुःख कम होते जाते हैं या दुःखों का अहसास नहीं होता।
कुटुम्ब, परिवार और विद्यालय में हमें सामूहिकता का संज्ञान होता है। समूह प्रवृत्ति का विकास होता है। सामाजिकता से हमारा आचरण, चरित्र एवं व्यवहार बनता है। समाज में हमारी छवि बनती है। हम सीखते और सिखाते हैं। हमारी क्षमताओं का विकास होता है और हम अपनी क्षमताओं की पहचान भी सीखते हैं। हम अपने उत्तरदायित्वों के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं। हम अपने कर्तव्य पहचानते हैं, लोकाचार को निभाते हैं। हम लोकोपवाद की भी चिंता करते हैं। समाज की परवाह करते हैं। हम अपने रीति-रिवाज एवं परम्पराओं का आदर करते हैं।
सांझी छत, सांझे चूल्हे की बात ही और थी। घर में बड़ा खुला आंगन होता था। आंगन में स्थापित तुलसी चौरा में तुलसी की पौध हुलसती थी चौरा के आलो में सांझ ढलते ही दीपक प्रज्ज्वलित कर दिये जाते थे। बड़ा दालान और प्रवेश द्वार के साथ घर की भव्यता देखते ही बनती थी। किन्तु अब सब कुछ टूट चुका है, सहकार पीछे छूट चुका है। परिवार टूटे हैं, बिखरे हैं। हर कोई एकाकी है। वैयक्तिकता हर जगह हावी है। दिल टूटे हैं। स्वार्थपरता हावी है।
यों तो हम विश्व ग्राम की बात करते हैं किन्तु अपने ही घर में अपनों से ही डरते हैं। सच-झूठ के सहारे दुनिया चल रही है। आज अनुचित को उचित ठहराने की कोशिश की जाती है। सामाजिक गिरावट का असर पर्यावरण पर भी पड़ता है। उपभोक्तावाद, अपसंस्कृति और मानसिक विकृतियां हावी हैं। पर्यावरण की रक्षा के लिए हमें विगत की नाकामियों को भूलकर आगत की चिंता करनी चाहिए। भविष्य की संभावनाएं तलाशनी चाहिए। आचरण की श्रेष्ठता पर जोर देना चाहिए। सत्य का वरण करना चाहिए। जिस दिन हम सच्चाई को स्वीकार लेंगे, अच्छाई के रास्ते पर चलेंगे, हमारा समाज भी कल्याणकारी हो जाएगा। हम जैसे हैं, वैसे ही दिखलाई देने लगेंगे अर्थात हमारी कथनी और करनी का अंतर खत्म हो जाएगा तब हममें विघटन नहीं संगठन होगा। समाज में व्यापक परिवर्तन होगा, सारे दुःख एवं सारी समस्याएं स्वयमेव तिरोहित हो जायेंगे।