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भगवान बुद्ध के चिंतन की प्रासंगिकता

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-डॉ अशोक कुमार भार्गव, आईएएस

भगवान बुद्ध भारत की सांस्कृतिक विरासत की अमूल्य धरोहर है। उनका समग्र जीवन
दर्शन मानवीय कल्याण के हितार्थ ज्ञान की खोज के लिए मात्र 29 वर्ष की आयु में परम
वैभव के साम्राज्य और सांसारिक सुखों के आकर्षण के परित्याग की पराकाष्ठा है। उनका
जन्म 583 ईसा पूर्व नेपाल की तराई में लुंबिनी में हुआ था। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ
था। जिसका अर्थ है अभिलाषा का पूर्ण हो जाना क्योंकि उनके जन्म से सभी की अभिलाषाएं
पूर्ण हुई इसलिए उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया। पिता शाक्य गणराज्य के राजा शुद्धोधन
और माता महामाया थीं। इनके जन्म को हिमालय के तपस्वी ऋषि असिता ने अलौकिक
असाधारण बताते हुए स्वयं जीवात्मा के दर्शन करते हुए कहा कि यह बालक समस्त मानव
जाति के लिए सिद्धार्थ है। यह या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या लोक कल्याण के लिए धर्म
चक्र प्रवर्तित करेगा जो इससे पहले संसार में कभी नहीं हुआ है। पिता चाहते थे कि सिद्धार्थ
वैराग्य धारण नहीं करें सम्राट बने। इसलिए संसार की समस्त सुख सुविधाएं सिद्धार्थ को
उपलब्ध कराई। रूपवती राजकुमारी यशोधरा से विवाह किया बाद में एक पुत्र राहुल की
प्राप्ति हुई किंतु वे सांसारिक मोह में बंध न सके। एक दिन मार्ग में उन्होंने अति कृशकाय
रोगी, वृद्ध पुरुष तथा एक मृतक को देखा तो सारथी छंदक ने बताया कि एक न एक दिन
सभी की यही दशा होनी है। एक साधु को भी देखा। यद्यपि त्रिपिटक आदि ग्रंथों में इन
घटनाओं का कोई उल्लेख नहीं है। संसार क्षणिक और दुखद है ये जान वे सब कुछ त्याग
कर ज्ञान की खोज में निकल पड़े। 6 वर्षों तक घोर तपस्या की किंतु ज्ञान की पिपासा शांत
नहीं हुई।

जनश्रुति है कि स्त्रियों के एक गीत को उन्होंने सुना “वीणा के तारों को ढीला मत
छोड़ो, ढीला छोड़ देने से उनसे सुरीला स्वर ना निकलेगा। तारों को इतना कसो भी मत
जिससे वे टूट जाएं।” उन्होंने गीत के मर्म को समझा कि किसी भी बात की अति ठीक नहीं।
उन्होंने मध्यम मार्ग अपनाया। इसके बाद गया जाकर वट वृक्ष के नीचे इस संकल्प के साथ
समाधिस्थ हो गए कि जब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक वे समाधिस्थ ही
रहेंगे। घोर तपस्या के सात दिनों पश्चात उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। वे तथागत और महात्मा
बुद्ध हो गए। सबसे पहले बोधगया में बुद्ध ने अपना उपदेश तपस्यु एवं मल्लिक नामक
दो बंजारों को दिया। जनसाधारण में ज्ञान की धर्म के रूप में दीक्षा दी। बुद्ध ने बौद्ध संघों
की स्थापना की। लगभग 45 वर्षों तक जनसाधारण की भाषा में वे सतत भ्रमण करते हुए
धर्म का प्रचार करते रहे। मगध के शासक बिंबिसार एवं अजातशत्रु, कौशल नरेश प्रसेनजीत,
प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली और स्वयं बुद्ध के पिता एवं पुत्र ने भी उनके धर्म को स्वीकार
किया। स्त्रियों को भी धर्म की दीक्षा दी गई। 80 वर्ष की अवस्था में कुसिनारा में बुद्ध ने
महापरिनिर्वाण को प्राप्त किया। यह संयोग ही है कि उनका जन्म, ज्ञान की प्राप्ति और मृत्यु
वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुई।
बुद्ध ने अपने धर्म की नैतिक व्याख्या की जो प्राणी मात्र की उन्नति के लिए
प्रतिबद्ध है। इस धर्म में कर्मकांड, अनुष्ठान, पाखंड और अंधविश्वास नहीं है। उन्होंने जीव
और जगत को माना। उनका पहला उपदेश धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से विख्यात है जिसके
चार प्रमुख सूत्र ही चार आर्य सत्य हैं। पहला आर्य सत्य है कि इस जगत में दुख है। दूसरा
तृष्णा के कारण दुख पैदा होता है। तीसरा दुख के निवारण का उपाय है तृष्णा से बचना और
चौथा आदमी के स्वयं के प्रयास से ही दुख निवारण संभव है। बुद्ध दुख निवारण को
भगवान या भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ते। कोई भी व्यक्ति ‘दुख निरोध गामिनी प्रतिपदा’ के
मार्ग का अनुसरण करते हुए दुखों पर नियंत्रण कर सकता है। यह अष्टांगिक मार्ग है सम्यक
दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्म, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक
स्मृति और सम्यक समाधि। बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाते हुए किसी भी व्यक्ति को किसी
भी प्रकार के अतिवादी व्यवहार से बचने का उपदेश दिया क्योंकि जीवन का सार विरोधी
अतिवादों के बीच संतुलन की खोज करने में ही निहित है। उनका यह दर्शन आज के
भौतिकवादी मूल्यों की चकाचौंध में भी जबकि व्यक्ति की इच्छाओं के अनियंत्रित विस्फोट
का दौर रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है तब यह और ज्यादा उपादेय व प्रासंगिक प्रतीत
होता है। यदि लालसाओं का अंत हो जाए तो आदमी संत हो जाए।

बुद्ध ने अपने धर्म में अपने लिए कोई स्थान नहीं रखा उन्होंने कभी किसी को
मुक्त करने का आश्वासन नहीं दिया। वे कहते रहे कि वे मार्गदाता हैं मोक्ष दाता नहीं। उनका
धर्म मनुष्यों के लिए एक मनुष्य द्वारा आविष्कृत धर्म था जो मौलिक और अलौकिक है।
उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे किसी धर्म की स्थापना कर रहे हैं या वे ईश्वर के पुत्र हैं,
अवतार या पैगंबर हैं या उन्हें ज्ञान का इलहाम हुआ है। जो बात बुद्धि संगत है तर्कसंगत है
वही बुद्ध वचन है। वे धर्म की असमानता और शोषण पर आधारित भेदभाव परक नीतियों
और आचरण को छोड़ने के एवं व्यक्ति स्वातंत्रय और बंधुता के पक्षधर थे। उनकी दृष्टि में
धर्म तभी सद्धर्म है जब वह सभी के लिए ज्ञान के द्वार खोल दें। ज्ञान केवल विद्वान
बनने के लिए पर्याप्त नहीं है वरन उसके साथ प्रज्ञा, शील, करुणा, प्राणी मात्र के प्रति मैत्री,
उदारता और अहिंसा की भावना विश्व की तरह व्यापक होनी चाहिए। यह तभी संभव है जब
तमाम सामाजिक भेदभावों की दीवारों को गिरा दें और किसी भी आदमी का मूल्यांकन उसके
जन्म से नहीं वरन कर्म से हो। जो धर्म आदमी, आदमी के बीच समानता के भाव की
अभिवृद्धि नहीं करता वह धर्म नहीं है क्योंकि आदमी असमान ही जन्म लेते हैं। कुछ
मजबूत होते हैं कुछ कमजोर, कुछ अधिक बुद्धिमान होते हैं कुछ कम कुछ एकदम नहीं, कुछ
अधिक सामर्थ्यवान होते हैं कुछ कम, कुछ धनी होते हैं तो कुछ गरीब सभी को जीवन संघर्ष
में प्रवेश करना पड़ता है और इस जीवन संघर्ष में यदि असमानता को स्वाभाविक स्थिति
स्वीकार कर लिया जाए तो जो कमजोर है उसका तो कहीं ठिकाना ही नहीं रहेगा। इसलिए
जो धर्म समानता का समर्थक नहीं है वह अपनाने योग्य नहीं है। इस दृष्टि से विश्व के
अन्य धर्म प्रवृत्तकों की तुलना में बुद्ध का धर्म अधिक जनतांत्रिक नजर आता है।
बुद्ध ने कहा कि मैं ऐसे किसी सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर सकता जिसमें सैकड़ों
बातों को यूं ही पहले से ही सही मानकर चलना होता है। उनका दृढ़ विश्वास था कि हर
व्यक्ति के भीतर अच्छा इंसान बनने की संभावनाएं होती है बशर्ते उस पर विश्वास कर उसे
समुचित अवसर परिस्थितियां प्रदान की जाएं। डाकू अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तन बुद्ध ने
अपनी निर्मल वाणी से ही किया था।
एक दिन बुद्ध धनी व्यक्ति के घर भिक्षा मांगने गए। धनी व्यक्ति ने कहा भीख
मांगते हो कामकाज क्यों नहीं करते। खेती बारी ही करो। भगवान बुद्ध ने मुस्कराकर कहा
खेती ही करता हूं। दिन-रात करता हूं और अनाज भी उगाता हूं। उस धनी व्यक्ति ने पूछा
यदि तुम खेती करते हो तो तुम्हारे पास हल-बैल कहां हैं? अन्न कहां है? बुद्ध ने कहा मैं
अंतःकरण में खेती करता हूं। विवेक मेरा हल है और संयम तथा वैराग्य मेरे बैल हैं। मैं प्रेम

ज्ञान और अहिंसा के बीज बोता हूं और पश्चाताप के जल से सिंचित करता हूं। सारी उपज मैं
विश्व को बांट देता हूं। यही मेरी खेती है। बुद्ध से एक दिन एक दुखी व्यक्ति ने कहा कि मैं
खुशी हासिल करना चाहता हूं। इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए। बुद्ध ने मुस्कुराते हुए
कहा कि एक तो मैं को छोड़ दो क्योंकि वह अहंकार है और दूसरे हासिल करना चाहता हूं को
छोड़ दो क्योंकि वह लालसा है। इन दोनों को छोड़ दोगे तो मैं खुशी हासिल करना चाहता हूं
मे से खुशी ही शेष बचेगी।
‘मैं कहां से आया हूं, किधर से आया हूं, मैं क्या हूं।’ बुद्ध इस प्रकार के व्यर्थ के
मानसिक संकल्प विकल्प उठाते रहने के समर्थक नहीं थे। बुद्ध ने कहा कि मन ही सभी
चीजों का केंद्र बिंदु है वही सब का मूल है मालिक है कारण है। मन ही शासन करता है
योजना बनाता है। यदि आदमी का मन शुद्ध होता है तो वह शुद्ध वाणी बोलता है अच्छे
कार्य करता है। मन काबू में है तो सब कुछ काबू में है। इसलिए मुख्य बात मन की साधना
है। अपने चित्त को निर्मल बनाए रखना ही धर्म का सार है। धर्म धार्मिक ग्रंथों के पाठ में
नहीं है बल्कि तन, मन और वाणी की पवित्रता बनाए रखते हुए तृष्णा का त्याग कर धार्मिक
जीवन व्यतीत करने में है। परलोकवाद की बजाए इहलोकवाद पर अधिक बल देते हुए बुद्ध
ने लोगों से यह नहीं कहा कि उनके जीवन का उद्देश्य किसी काल्पनिक स्वर्ग की प्राप्ति
होना चाहिए। धर्म का राज्य पृथ्वी पर ही है जिसे धर्म पथ पर चलकर प्राप्त किया जा
सकता है। इस हेतु बुद्ध ने सात शुभ संकल्पों तथा नैतिक मूल्यों की आचरण संहिता के
पालन पर बल दिया जिन्हें दसशील के नाम से जाना जाता है।
बुद्ध की संवेदनशीलता अप्रतिम थी। उनकी प्राथमिकता संसार के सभी प्राणियों के
दुख दूर करने की थी। वह कहते हैं तीर से घायल व्यक्ति को देखकर हमारी पहली कोशिश
यह होनी चाहिए कि हम उसका तीर निकालें और चिकित्सा करें ना कि उस बेचारे से तीर
किसने मारा, क्यों मारा, कैसे मारा जैसे सैद्धांतिक प्रश्न पूछने में समय बर्बाद करें। निसंदेह
वर्तमान समय में हमारी संवेदनाएं मृत हो गई हैं। कोविड-19 के विश्वव्यापी संकट ने यह
उजागर भी किया है। अब संवेदनाएं सोशल मीडिया की ही विषय वस्तु रह गई है। सचमुच!
बुद्ध आज कितने प्रासंगिक प्रतीत होते हैं।
पाली में एक कहावत है कि सूर्य केवल दिन में चमकता है और चंद्रमा रात्रि में लेकिन
बुद्ध अपने तेजस्वी व्यक्तित्व से दिन-रात हर समय प्रकाशित रहते हैं। वे समस्त लोक के
प्रकाश स्तंभ अर्थात भुवनप्रदीप थे। दुखियों का दुख दूर करने वाले मानसिक दुखों के महान

चिकित्सक बुद्ध को ही यह गौरव प्राप्त है कि उन्होंने आदमी में मूलतः विद्यमान उस
निहित शक्ति को पहचाना जो बिना किसी बाह्य निर्भरता के उसे मोक्ष पथ पर अग्रसर कर
सकती है। उनका चिंतन कितना शाश्वत है कि जीवन का सार संतुलन में है उसे किसी भी
अतिवाद के मार्ग पर ले जाना अर्थहीन है। प्रत्येक व्यक्ति के अंतस में सृजनात्मक सामर्थ्य
की असीम संभावनाएं हैं। इसलिए व्यक्ति को आत्म दीपो भव अर्थात अपना दीपक स्वयं
बनते हुए किसी का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को ‘मैं’ के अहंकार भाव
से बचते हुए सभी को साथ लेकर चलना चाहिए जो कि जनतांत्रिक और मानवीय गरिमा का
सम्मान है। सिर्फ अपने लिए जीना क्या जीना है? उनके विचारों की उपादेयता संदेह से परे
है। वे अतीत में भी प्रासंगिक थे आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे।