Lok Shakti

Nationalism Always Empower People

ताजनगरी की सियासत: 17 चुनावों में एक बार क्लीन स्वीप कर पाई कांग्रेस, कभी नहीं बना दबदबा, हर लहर में लगा झटका

सार
आगरा में वर्ष 1989 से कांग्रेस पार्टी का ग्राफ गिरना शुरू हुआ जो 2017 के विधानसभा चुनावों तक उठ नहीं सका है।

ख़बर सुनें

ख़बर सुनें

26 साल से विधानसभा पहुंचने की राह तलाश रही कांग्रेस ताजनगरी की सियासत में उतार चढ़ाव से जूझती रही है। 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में ही कांग्रेस के प्रत्याशियों ने आगरा (तब फिरोजाबाद भी शामिल) की 10 सीटों पर जीत हासिल करके क्लीन स्वीप किया था। इसके बाद 2017 तक हुए 16 चुनावों में कांग्रेस कभी जिले की सभी विधानसभा सीटें नहीं जीत पाई। 1989 व 1991 में हुए चुनावों में पार्टी खाता नहीं खोल सकी। इसके बाद हुए छह विधानसभा चुनावों में केवल 1993 व 1996 में एक-एक सीट ही जीत सकी।
लंबे समय तक नहीं रह सका कांग्रेस का दबदबा
केंद्र और प्रदेश में लंबे समय तक सत्तासीन रहने के बाद भी ताजनगरी की राजनीति में कांग्रेस का दबदबा लंबे समय तक नहीं रह सका। 1952 के बाद 1957 के चुनाव में पांच सीटें जीत पाई, जबकि चार पर निर्दलों ने बाजी मारी। 1962 के चुनाव में चार, रिपब्लिकन पार्टी 3 तो सोशलिस्ट पार्टी ने दो सीटें जीतीं, जबकि एक पर निर्दल उम्मीदवार जीता।  
1967 के चुनाव में भारतीय जनसंघ ने कांग्रेस को टक्कर दी। इसमें कांग्रेस की तीन सीटें आईं, जनसंघ ने भी तीन पर जीत हासिल की। सोशलिस्ट पार्टी ने दो सीटें जीतीं। आरपीआई व निर्दल ने एक-एक सीटें जीतीं। 1969 के चुनाव में भी कांग्रेस तीन सीटों तक सीमित रही, चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल ने चार व अन्य ने तीन सीटें जीतीं। 1974 के चुनाव में कांग्रेस ने एक बार फिर वापसी की। छह सीटों पर उसके उम्मीदवारों ने जीत हासिल की, जबकि भारतीय क्रांति दल दो और अन्य एक-एक सीटों पर सिमट गए। 1977 में कांग्रेस ने तीन सीटें जीतीं। 1980 में वापसी करते हुए छह सीटों पर जीत हासिल की, जबकि जनता पार्टी को तीन सीटें मिलीं। 

जनता लहर में भी तीन विधायकों ने बचाई लाज
1977 की जनता पार्टी की लहर में आगरा में कांग्रेस के तीन विधायकों ने पार्टी विरोधी माहौल के बाद भी जीत हासिल की। इनमें आगरा कैंट सीट से डॉ. कृष्णवीर सिंह कौशल, आगरा पूर्वी से सुरेंद्र कुमार सिंधू और आगरा पश्चिमी से गुलाब सेहरा ने लाज बचाई। वहीं छह सीटों पर जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी। 
85 के बाद उभरे भाजपा व क्षेत्रीय दल
1985 के चुनाव में भाजपा ने पदार्पण किया। इसके साथ ही बीकेडी, लोकदल जैसे क्षेत्रीय दल भी चुनौती बनकर उभरे। इस चुनाव में कांग्रेस के पांच उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे तो लोकदल के तीन और भाजपा का एक उम्मीदवार जीता। 
1989 के बाद उबर नहीं पाई कांग्रेस
1989 के आरक्षण आंदोलन के बाद जनता दल ने इस चुनाव में ताल ठोकी। इस चुनाव में कांग्रेस खाता नहीं खोल सकी। जनता दल के छह व भाजपा के तीन उम्मीदवार जीते। 1991 में राजीव गांधी की शहादत के बाद हुए चुनाव में भी पार्टी का खाता नहीं खुल सका। 1993 व 1996 के चुनावों में खेरागढ़ विधानसभा सीट पर मंडलेश्वर सिंह ने कांग्रेस का खाता खोला, लेकिन इसके बाद 2002, 2007, 2012 व 2017 के चार चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार मुख्य मुकाबलों से बाहर ही रहे। 

राजबब्बर भी नहीं दे पाए मजबूती
आगरा के रहने वाले सिने स्टार राजबब्बर ने प्रदेश में जुलाई, 2016 से 2018 तक कांग्रेस की कमान संभाली मगर वह भी संगठन को मजबूती नहीं दे पाए। उनके कार्यकाल में हुए 2017 के विधानसभा चुनाव में खाता भी नहीं खोल सके। 2019 के लोकसभा चुनाव में वह खुद फतेहपुरसीकरी लोकसभा सीट से चुनाव हार गए। 
 
यह रहे कारण
. क्षेत्रीय दलों ने जातिगत राजनीति को बढ़ावा दिया, कांग्रेस विचारधारा को लेकर संघर्ष करती रही। 
. संगठन से लंबे समय तक जुड़े कार्यकर्ताओं की लगातार उपेक्षा
. संगठन का कमजोर होना, कैडर कार्यकर्ता तैयार नहीं कर पाना
. नारायणदत्त तिवारी के बाद प्रदेश में मजबूत नेतृत्व का अभाव 
(जैसा कि वरिष्ठ कांग्रेस नेता दुष्यंत शर्मा ने बताया) 

विस्तार

26 साल से विधानसभा पहुंचने की राह तलाश रही कांग्रेस ताजनगरी की सियासत में उतार चढ़ाव से जूझती रही है। 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में ही कांग्रेस के प्रत्याशियों ने आगरा (तब फिरोजाबाद भी शामिल) की 10 सीटों पर जीत हासिल करके क्लीन स्वीप किया था। इसके बाद 2017 तक हुए 16 चुनावों में कांग्रेस कभी जिले की सभी विधानसभा सीटें नहीं जीत पाई। 1989 व 1991 में हुए चुनावों में पार्टी खाता नहीं खोल सकी। इसके बाद हुए छह विधानसभा चुनावों में केवल 1993 व 1996 में एक-एक सीट ही जीत सकी।

लंबे समय तक नहीं रह सका कांग्रेस का दबदबा

केंद्र और प्रदेश में लंबे समय तक सत्तासीन रहने के बाद भी ताजनगरी की राजनीति में कांग्रेस का दबदबा लंबे समय तक नहीं रह सका। 1952 के बाद 1957 के चुनाव में पांच सीटें जीत पाई, जबकि चार पर निर्दलों ने बाजी मारी। 1962 के चुनाव में चार, रिपब्लिकन पार्टी 3 तो सोशलिस्ट पार्टी ने दो सीटें जीतीं, जबकि एक पर निर्दल उम्मीदवार जीता।  

1967 के चुनाव में भारतीय जनसंघ ने कांग्रेस को टक्कर दी। इसमें कांग्रेस की तीन सीटें आईं, जनसंघ ने भी तीन पर जीत हासिल की। सोशलिस्ट पार्टी ने दो सीटें जीतीं। आरपीआई व निर्दल ने एक-एक सीटें जीतीं। 1969 के चुनाव में भी कांग्रेस तीन सीटों तक सीमित रही, चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल ने चार व अन्य ने तीन सीटें जीतीं। 1974 के चुनाव में कांग्रेस ने एक बार फिर वापसी की। छह सीटों पर उसके उम्मीदवारों ने जीत हासिल की, जबकि भारतीय क्रांति दल दो और अन्य एक-एक सीटों पर सिमट गए। 1977 में कांग्रेस ने तीन सीटें जीतीं। 1980 में वापसी करते हुए छह सीटों पर जीत हासिल की, जबकि जनता पार्टी को तीन सीटें मिलीं।