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एक और , से संवेदनाएं कांप गयी

ललित गर्ग 

मध्य प्रदेश में रीवा जिले के पड़री गांव में एक गरीब मजदूर का हाथ इसलिये काट दिया गया कि उसने अपनी मेहनत का मेहनताना मांगा। इस क्रूर, बर्बर एवं हिंसक घटना ने समूचे राष्ट्र को झकझोर दिया है। एक मजदूर पर जानलेवा हमला करने और उसका हाथ काट देने की यह घटना किसी भी संवेदनशील समाज को दहला देने के काफी है, नया भारत को बनाते हुए ऐसी शर्मसार करने वाली घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा प्रतीत होता है कि अर्थ, सत्ता एवं वर्चस्व की होड़ में रोटी महंगी एवं मनुष्य सस्ता हो गया है। इंसान एवं इंसानियत के बीच अहंकार की दीवारें तमाम मानवीयता के नारों के बीच आज भी खड़ी है। इस अमानवीय घटना ने अनेक प्रश्न खड़े कर दिये हैं। कहां खो गई मानवीय संवेदनाएं? कैसे अर्थहीन हो गया जीवन-मूल्यों एवं संवेदना का अस्तित्व? कैसे बदल गई समता एवं सह-जीवन की जीवन-शैली? कहां है कमजोर तबकों के प्रति परोपकार का नजरिया?
पड़री गांव की इस घटना ने आधुनिक समाज की बर्बर सोच को ही उजागर किया है। इससे यह अंदाजा लगता है कि आज भी देश में कमजोर एवं गरीब तबकों के लोगों को अपना हक मांगने पर अक्सर कैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। गांव में राजमिस्त्री का काम करने वाले एक दलित मजदूर ने सिर्फ अपने काम की मजदूरी मांगी और काम कराने वाले व्यक्ति ने इसके बदले उस पर तलवार से हमला कर दिया। उस समय मजदूर की जान तो किसी तरह बच गई, लेकिन तलवार के वार से उसका हाथ कट कर अलग हो गया। बुरी तरह घायल अवस्था में उसे अस्पताल पहुंचाया गया। यह घटना बताती है कि आज भी ग्रामीण इलाकों में किस तरह की सामंती प्रवृत्तियां अपने बर्बर, क्रूर एवं अमानवीय रूप में काम करती रहती हैं। इस मामले में संतोषजनक पहलू बस यह रहा कि खबर मिलने के बाद पुलिस महकमे ने जरूरी सक्रियता बरती और वक्त पर कार्रवाई करके आरोपियों को गिरफ्तार किया। साथ ही पीड़ित मजदूर का छिपाया गया कटा हाथ खोज कर अस्पताल पहुंचाया और डाक्टरों से जोड़ने की कोशिश करने का आग्रह किया।
कितनी अर्थहीन बात लगती है कि मुर्गा यह समझ बैठे कि सूरज सिर्फ उसकी बांग सुनने के लिये ही उगता है। ठीक इसी तरह कितना अहंकारी, स्वार्थी एवं मदहोशी बन गया है इंसान कि उसे किसी दूसरे इंसान के जीवन का कोई महत्व ही नजर नहीं आता। इसलिये वह औरों को अधिकारों से वंचित रखता है, अपनी मनमर्जी करता है। स्वयं की अस्मिता को ऊंचाइयां देने एवं अहंकार को पोषित करने के लिये गरीब, अभावग्रस्त एवं कमजोर के श्रम का शोषण करते हुए उन पर अत्याचार करता है। उसकी अन्तहीन महत्वाकांक्षाएं मानवीयता तक को जख्मी बना रही है। यह घटना बताती है कि झूठी श्रेष्ठता के भ्रम से उपजे दंभ में व्यक्ति किस हद तक क्रूर हो जा सकता है। सवाल है कि एक मजदूर से काम कराने वाले किसी व्यक्ति के भीतर ऐसी संवेदनहीनता, शोषण एवं क्रूर अत्याचार करने की प्रवृत्ति का स्रोत क्या है और मजदूरी या हक मांगने पर किसी की हत्या तक कर डालने का दुस्साहस कहां से आता है?
निश्चित रूप से इस तरह का सामंती और क्रूर बर्ताव करने वाले व्यक्ति को भी यह पता होगा कि उसकी ऐसी हरकत के बाद कानून के कठघरे में उसका क्या होगा? कितनी विचित्र बात है कि ऐसे सामंती प्रवृत्ति के लोग चाहकर भी अहं को झुका नहीं पाते। जानते हुए भी कि एकपक्षीय पकड़ एवं संवेदनहीनता जीवन के हर मोड़ पर व्यक्ति को अकेला कर देती है, कानून की पकड़ उसे सजा भोगने को अग्रसर कर देती है फिर भी वह इंसानियत को नहीं अपना पाता, औरों के अस्तित्व को स्वीकृति नहीं दे पाता और न ही बुराइयों के आने का रास्ता रोक पाता है। इसी मानवीय दुर्बलता ने मनुष्य के विकास एवं एक आदर्श मानवीय संरचना को जंग लगा दिया है। उसकी यह दुर्बलता रही है कि उसे कभी अपनी भूल नजर नहीं आती जबकि औरों की छोटी-सी भूल उसे अपराध लगती है। ऐसे में आज कहां सुरक्षित रह पाया है ईमान एवं इंसानियत के साथ इंसान तक पहुंचने वाली अमीरी एवं सत्ता के वर्चस्व का आदर्श? जीवन मूल्यहीन एवं दिशाहीन हो रहा है। हमारी सोच जड़ हो रही है। अनेक कानूनों, मानवाधिकारों एवं समतामूलक समाज के नारों पर आज राष्ट्रीय स्तर पर बहस हो रही है। पर कौन लगाम लगायेगा इन क्रूर एवं बर्बर घटनाओं पर? कौन मंथन करेगा इस विष एवं विषमता को निकालने के लिये?
यह कैसा अहंकारी समाज बन रहा है जहां अमीर गरीबों पर लगातार अत्याचार कर रहा है। आमतौर पर ऐसे अहंकारी लोगों के भीतर इस बात का भरोसा होता है कि वे अपनी सामाजिक-राजनैतिक हैसियत और आर्थिक सामर्थ्य के बल पर प्रशासन और तंत्र में बैठे लोगों को अपने पक्ष में प्रभावित करके सजा से बच जाएंगे! दरअसल, ऐसे मामले अक्सर आते रहे हैं, जिसमें कमजोर या दलित तबके के लोगों के खिलाफ हुए अपराध, अत्याचार, हिंसा के मामलों में पुलिस का रवैया न केवल उदासीन देखा गया, बल्कि कई बार वह आरोपी और समर्थ तबके के बचाव तक में खड़ी दिखी। ऐसे में इंसाफ की उम्मीद धुंधली होती है। इस तरह की अहंकारी मानसिकता की अनेक विसंगतियां समाज को घायल करती रही है। सत्ता का अहं जागा तो विलासिता एवं क्रूरता आई। यौवन का अहं जागा तो अन्तहीन दुःखों का आह्वान मिला। ज्ञान का अहं जागा तो जीवन के नैतिक आदर्शों को बौना होना पड़ा। शक्ति का अहं जागा तोे युद्ध के खतरों ने भयभीत किया और समृद्धि एवं शक्ति का अहं जागा तो मनुष्य-मनुष्य के बीच असमानताएं एवं हाथ काटने जैसी बर्बरताएं आ खड़ी हुईं। लेकिन इसके समांतर ज्यादा जटिल स्थिति यह है कि इस तरह के हिंसक व्यवहार का मूल स्रोत ऐसे व्यक्ति के भीतर अपनी सामाजिक एवं आर्थिक हैसियत से उपजा अहं और कुंठित मानस होता है। जिस राजमिस्त्री का हाथ काट दिया गया, वह दलित पृष्ठभूमि से है और हमलावर उच्च कही जाने वाली जाति से आता है। हमारे समाज में जातिगत पहचान से संचालित होने वाली मानसिकता क्या इसकी जड़ में नहीं है कि दबंग हैसियत वाले लोग कमजोर जाति या तबके के खिलाफ इस हद तक आक्रामक हो जाते हैं?
समाज एवं राष्ट्र की संवेदना को लीलने वाली इन घटनाओं से निपटना न केवल सरकार का प्राथमिक दायित्व है, बल्कि खुद समाज को ऐसी अमानवीय स्थितियों पर विचार करना चाहिए। खासतौर पर सामाजिक रूप से मजबूत और सुविधा-सम्पन्न तबकों को इस दिशा में पहल करके तस्वीर बदलने और व्यवस्था को मानवीय स्वरूप देने की कोशिश करनी चाहिए। जाति और इस व्यवस्था के तहत संचालित मनोविज्ञान के अहं ने हमारे समाज को अतीत से लेकर अब तक बहुत नुकसान पहुंचाया है, इसलिये उस अहं का शोधन करना जरूरी है जो मूलभूत मानवीयता की श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना अस्तित्व स्थापित करना चाहता है। अहं झुका तो सारे गुण ऊंचे उठ जायेंगे फिर किसी राजमिस्त्री को अपनी मेहनताना मांगने पर अपना हाथ नहीं गंवाना पड़ेगा।