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क्याग्रेस खुद को बदल पाएगी….? कां

-ऋतुपर्ण दवे

भी रहा है। लगता भी नहीं कि इससे पार्टी की बची-खुची साख पर बट्टा लगने से बचाया जा सकेगा। अब तो हवा का रुख भांपने के एक से एक तौर तरीके सामने हैं। उसके बाद कांग्रेस में 5 राज्य के चुनावों से 6 महीने पहले लिए गए फैसले जो दिखते कठोर जरूर हैं पर आम मतदाताओं के बीच कौन सा संदेश दे रहे हैं शायद इस पर भी आत्मचिन्तन नहीं किया गया होगा? माना कि जातिगत कार्ड खेलकर कागजों और गणित के कतिपय राजनीतिक फॉर्मूलों से एन्टी-इन्कम्बेन्सी को मात देने की युक्ति की दुहाई भले ही दी जा रही हो पर पंजाब के मतदाताओं पर इसका क्या असर पड़ेगा इसको लेकर चल पड़ी हवा कब आंधी और देखते ही देखते तूफान में बदल जाएगी, कैसे इंकार किया जा सकता है?

कमोवेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही यही कुछ घट रहा है। सत्ता का लालच और कुर्सी की होड़ के बीच भले ही शिगूफेबाजी हो, लेकिन नित नई बनती सुर्खियों और सत्ता के भावी बदलाव की झूठी-सच्ची हवाओं से एक स्थिर और आंकड़ों में मजबूत सरकार की चिन्ता बढ़ना अस्वाभाविकांग्रेस के लिए यह संक्रमण काल है। बहुत गहरा और अग्निपरीक्षा सरीखे। कांग्रेस के अस्तित्व पर भी सवाल उठने लगे हैं। अब अक्सर राजनीतिक गलियारों में यह सवाल भी कौंधता है कि कांग्रेस बचेगी भी या नहीं? ऐसे सवालों के पीछे भावनाएं भी अलग-अलग हो सकती हैं। राजनीति में भले ही इन सवालों के मायने कुछ भी निकाले जाएं लेकिन लोकतंत्र के लिहाज से इसे सवाल नहीं भावनाओं की नजर से देखा जाना चाहिए। सच तो यह है कि इस देश के मजबूत लोकतंत्र के पीछे सशक्त विपक्ष की पैनी नजर और उसे प्रोत्साहित करने की ईमानदार मंशा के अतीत के तमाम उदाहरण सबके सामने हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं दिखता। क्या देर-सबेर यह लोकतंत्र के लिए ही चुनौती बन सकेगा या फिर केवल कांग्रेस के लिए?

भारतीय जनता पार्टी के अनेकों वरिष्ठों के द्वारा कई मौकों पर कांग्रेस को टुकड़े-टुकड़े गैंग कहने की कुछ वर्ष पुरानी शुरुआत सही लगने लगी है। मेरा ऐसा लिखने का अभिप्राय कांग्रेस की मुखालफत कतई नहीं है। बस इतना कि बदली हुई राजनीतिक, सामाजिक और तकनीकी परिस्थितियों के बीच कांग्रेस में वो इच्छा शक्ति या मजबूती नहीं दिख रही है जो इस वक्त दिखनी चाहिए थी। समय का यही तकाजा है। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह सुकून की बात हो सकती है लेकिन लोकतंत्र के लिए नहीं। दुनिया के सबसे मजबूत और विशाल लोकतंत्र की मजबूती के लिए सशक्त विपक्ष जरूरी है। कांग्रेस में अब वो बात दिखती नहीं है और मजबूत होती क्षेत्रीय पार्टियों में नेशनल लीडरशिप को लेकर लड़ाई पहले दिख चुकी है। आगे भी दिखना तय है। जाहिर सभी के एका की सोचना बेमानी होगी।

 सच तो यह है कि हर किसी को लगने लगा है कि कांग्रेस किस दिशा में जा रही है और वह भी क्यों और कैसे?  इसका जवाब न तो कांग्रेस दे रही है और न ही देने को तैयार दिखती है। परिस्थितियों पर सब कुछ छोड़कर भी कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह भी सच है कि यह सब कुछ परिस्थितजन्य भी तो नहीं है। पंजाब के घटनाक्रम के बाद भले ही कोई सा भी कार्ड खेलकर कांग्रेस की सरकार बचा ली गई हो। लेकिन जो कुछ घट रहा है वह तेजी से सब तक पहुंच क नहीं है। ऩिश्चित रूप से ऐसी अटकलबाजियों से सरकार की मजबूती और भविष्य को लेकर कार्य प्रणाली और लेखा-जोखा से भी खास लहर बनती है जो बिना कहे उस सरकार के प्रति धारणा बना देती है। यह भी सच है कि कांग्रेस के पास एक हाथ की उंगलियों पर गिने जाने लायक राज्य बचे हैं। इसी को लेकर जितना अंर्तद्वन्द, खींचतान या सामंजस्य की कवायदें बाहर दिखती हैं वह 136 वर्ष पुराने इस संगठन में कभी दिखी यहां तक कि आपातकाल में भी। अब तो यह भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि कौन किसका सिपहसलार? पार्टी के प्रति निष्ठा के मायने पुराने होते जाते हैं जो गुटों के प्रति निष्ठा में तेजी से बदल गए हैं। एक पार्टी और गुटों की भरमार का जो सच अब है वह शायद पहले कभी नहीं दिखा। क्षेत्रीय पार्टियों से भी बदतर हालात में कांग्रेस का सच भले ही भाजपा के लिए बूस्टर बनता हो लेकिन लोकतंत्र के लिहाज से इसे अलग नजरिए से देखना ही होगा।