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कोतवाली पर लटका दिया गया था क्रांतिकारी मौलवी अहमदउल्ला का सिर

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लोधीपुर गांव में स्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई का एक ऐसा शेर सोया हुआ है, जिसके साहस से अंग्रेजी हुकूमत थर्राती थी। अंग्रेजों के खौफ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 15 जून 1858 को क्रांतिकारी मौलवी अहमद उल्ला शाह की पुवायां के पास जब शहादत हुई तो उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया और उसे कोतवाली गेट पर लटका दिया गया। ताकि कोई बगावत की हिम्मत न जुटा सके। लेकिन क्रांति की धारा इतनी तेज थी कि कुछ नौजवान कोतवाली से उनका सिर उठा ले गए, जिससे लोधीपुर में दफ्न कर दिया गया।1857 के गदर के इतिहास में मौलवी अहमद शाह का उल्लेख डंकाशाह के नाम से भी हुआ। ऐसा कहा जाता है कि अहमद शाह जब चला करते थे तो उनके आगे डंका बजता चलता था। मौलवी अहमद शाह के गुरु एक साधु थे, जिन्होंने उन्हें स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने की शपथ दिलाई थी। अवध ऐब्सट्रैक्ट प्रोसीडिंग (पोलिटिकल) में इस बात का जिक्र है।

मौलवी का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि लोग सहज ही उनकी ओर आकर्षित हो जाते। उनके भाषणों से आग बरसती थी। फैजाबाद, रायबरेली, उन्नाव, सीतापुर, लखनऊ शाहजहांपुर, मेरठ, आगरा आदि जिलों में मौलवी का तूफानी दौरा हुआ। अंग्रेजों ने उन्हें इतना खतरनाक समझा कि फरमान जारी हुआ कि लखनऊ और आगरा में वह घुसने न पाएं। फैजाबाद में उनके प्रवास के दौरान लोगों की भीड़ देख अंग्रेज इतना घबरा गए कि सेना ने उन्हें घेर लिया। युद्ध हुआ और वह पकड़े गए। कर्नल लेनाक्स ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई। क्रांतिकारियों के पास जब उनके फांसी की सजा पहुंची तो वे भड़क उठे। 30 मई 1857 को लखनऊ में क्रांति की शुरुआत हो गई। इधर फैजाबाद में क्रांतिकारियों ने मौलवी को छुड़ा लिया। अब मौलवी को क्रांति सेना का प्रमुख बना दिया गया और वे लखनऊ की ओर कूच कर दिए। यहां मौलवी की सेना ने अंग्रेजों को परास्त किया। लेकिन कुछ दिनों बाद फिर भयानक युद्ध हुआ, जिसमें मौलवी हार गए।

इसके बाद वह और नाना साहब पेशवा शाहजहांपुर आ गए।यहां भी अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों का पीछा किया। जमकर संघर्ष हुआ। नाना साहब ने शहर की कई इमारतों को आग लगा दी। कुछ अधिकारियों ने पुवायां रियासत के राजा जगन्नाथ सिंह के यहां शरण ली। अंतत: अंग्रेजी सेना क्रांतिकारियों पर भारी पड़ी। लेकिन न मौलवी उनके हाथ आए और न नाना साहब। मौलवी मोहम्मदी की ओर निकल गए। लेकिन उन्होंने जगन्नाथ सिंह से बदला लेने की ठानी। एक दिन हाथी पर सवार होकर दलबल के साथ पुवायां की गढ़ी पर पहुंचे तो वहां फाटक बंद था। राजा ने अपने भाई बल्देव सिंह को उनके पास भेजा तो उन्होंने उनके यहां शरण पाए अधिकारियों को सौंपने को कहा। राजा के इनकार करने पर मौलवी को गुस्सा आ गया। उन्होंने महावत को गेट तोड़ने को कहा। इसी वक्त बल्देव ने झरोखे से गोली चला दी और मौलवी अहमद शाह शहीद हो गई।उनकी मौत के बाद राजा जगन्नाथ सिंह ने तलवार के उनका सिर अलग किया और रुमाल में लपेट कर जिला मजिस्ट्रेट के पास पहुंचे। जिला मजिस्ट्रेट ने उन्हें पचास हजार का इनाम दिया। बाद उस सिर को कोतवाली पर लटका दिया गया।
फकीर क्रांतिकारी मौलवी
मौलवी अहमदशाह के लखनऊ पहुंचते ही अंग्रेज घबरा गए। मौलवी से मोर्चा लेने के लिए 10 तोपों, 150 घुड़सवार और 500 पैदल पल्टन लगाई गई, जिसकी कप्तानी लॉरेंस ने की। लेकिन अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी। क्रांतिकारियों की यह बहुत बड़ी जीत थी। पूरा लखनऊ उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया। वह चाहते तो लखनऊ के शासक बन जाते। पर उन्होंने ऐसा नही किया। लोगों ने जब प्रस्ताव रखा तो उनका उत्तर था कि नहीं मैं तो फकीर हूं, फकीरों का सल्तनत से किया रिश्ता। इसके बाद बिरजिस कद्र को वहां का शासक नियुक्त किया गया।
तो इसलिए कही जाती है जली कोठी
शाहजहांपुर जब नाना साहब पहुंचे तो क्रांतिकारी गतिविधियों को सूचना एक कोठी में रहने वाले कुछ लोगों ने अंग्रेजों को पहुंचाई। गुलाम कादिर खां को जब यह जानकारी मिली तो उन्होंने नाना साहब को बताया। इसके बाद नाना साहब ने उस कोठी में आग लगवा दी। तभी से वह जली कोठी कही जानी लगी।

लोधीपुर गांव में स्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई का एक ऐसा शेर सोया हुआ है, जिसके साहस से अंग्रेजी हुकूमत थर्राती थी। अंग्रेजों के खौफ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 15 जून 1858 को क्रांतिकारी मौलवी अहमद उल्ला शाह की पुवायां के पास जब शहादत हुई तो उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया और उसे कोतवाली गेट पर लटका दिया गया। ताकि कोई बगावत की हिम्मत न जुटा सके। लेकिन क्रांति की धारा इतनी तेज थी कि कुछ नौजवान कोतवाली से उनका सिर उठा ले गए, जिससे लोधीपुर में दफ्न कर दिया गया।

1857 के गदर के इतिहास में मौलवी अहमद शाह का उल्लेख डंकाशाह के नाम से भी हुआ। ऐसा कहा जाता है कि अहमद शाह जब चला करते थे तो उनके आगे डंका बजता चलता था। मौलवी अहमद शाह के गुरु एक साधु थे, जिन्होंने उन्हें स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने की शपथ दिलाई थी। अवध ऐब्सट्रैक्ट प्रोसीडिंग (पोलिटिकल) में इस बात का जिक्र है। मौलवी का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि लोग सहज ही उनकी ओर आकर्षित हो जाते। उनके भाषणों से आग बरसती थी। फैजाबाद, रायबरेली, उन्नाव, सीतापुर, लखनऊ शाहजहांपुर, मेरठ, आगरा आदि जिलों में मौलवी का तूफानी दौरा हुआ। अंग्रेजों ने उन्हें इतना खतरनाक समझा कि फरमान जारी हुआ कि लखनऊ और आगरा में वह घुसने न पाएं। फैजाबाद में उनके प्रवास के दौरान लोगों की भीड़ देख अंग्रेज इतना घबरा गए कि सेना ने उन्हें घेर लिया। युद्ध हुआ और वह पकड़े गए। कर्नल लेनाक्स ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई। क्रांतिकारियों के पास जब उनके फांसी की सजा पहुंची तो वे भड़क उठे। 30 मई 1857 को लखनऊ में क्रांति की शुरुआत हो गई। इधर फैजाबाद में क्रांतिकारियों ने मौलवी को छुड़ा लिया। अब मौलवी को क्रांति सेना का प्रमुख बना दिया गया और वे लखनऊ की ओर कूच कर दिए। यहां मौलवी की सेना ने अंग्रेजों को परास्त किया। लेकिन कुछ दिनों बाद फिर भयानक युद्ध हुआ, जिसमें मौलवी हार गए। इसके बाद वह और नाना साहब पेशवा शाहजहांपुर आ गए।

यहां भी अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों का पीछा किया। जमकर संघर्ष हुआ। नाना साहब ने शहर की कई इमारतों को आग लगा दी। कुछ अधिकारियों ने पुवायां रियासत के राजा जगन्नाथ सिंह के यहां शरण ली। अंतत: अंग्रेजी सेना क्रांतिकारियों पर भारी पड़ी। लेकिन न मौलवी उनके हाथ आए और न नाना साहब। मौलवी मोहम्मदी की ओर निकल गए। लेकिन उन्होंने जगन्नाथ सिंह से बदला लेने की ठानी। एक दिन हाथी पर सवार होकर दलबल के साथ पुवायां की गढ़ी पर पहुंचे तो वहां फाटक बंद था। राजा ने अपने भाई बल्देव सिंह को उनके पास भेजा तो उन्होंने उनके यहां शरण पाए अधिकारियों को सौंपने को कहा। राजा के इनकार करने पर मौलवी को गुस्सा आ गया। उन्होंने महावत को गेट तोड़ने को कहा। इसी वक्त बल्देव ने झरोखे से गोली चला दी और मौलवी अहमद शाह शहीद हो गई।

उनकी मौत के बाद राजा जगन्नाथ सिंह ने तलवार के उनका सिर अलग किया और रुमाल में लपेट कर जिला मजिस्ट्रेट के पास पहुंचे। जिला मजिस्ट्रेट ने उन्हें पचास हजार का इनाम दिया। बाद उस सिर को कोतवाली पर लटका दिया गया।

मौलवी अहमदशाह के लखनऊ पहुंचते ही अंग्रेज घबरा गए। मौलवी से मोर्चा लेने के लिए 10 तोपों, 150 घुड़सवार और 500 पैदल पल्टन लगाई गई, जिसकी कप्तानी लॉरेंस ने की। लेकिन अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी। क्रांतिकारियों की यह बहुत बड़ी जीत थी। पूरा लखनऊ उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया। वह चाहते तो लखनऊ के शासक बन जाते। पर उन्होंने ऐसा नही किया। लोगों ने जब प्रस्ताव रखा तो उनका उत्तर था कि नहीं मैं तो फकीर हूं, फकीरों का सल्तनत से किया रिश्ता। इसके बाद बिरजिस कद्र को वहां का शासक नियुक्त किया गया।