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मेरा लेख मुद्देविहीन चुनावों की त्रासदी कब तक?

– ललित गर्ग-

कोरोना महामारी की तीसरी लहर के बीच पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है, लेकिन सबसे बड़ी विडम्बना जो हर बार की तरह इस बार भी देखने को मिल रहा है, वह है इन चुनावों का मुद्दाविहीन होना। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से लेकर गोवा, मणिपुर और पंजाब तक में टिकटों की बंदरबांट और उन्हें हासिल करने के लिए दलबदल की लहर शुरू हो गई है। दुनिया के लगभग हर बड़े लोकतंत्र में पार्टियां अपने उम्मीदवारों का चयन निर्वाचन क्षेत्र में पार्टी सदस्यों और स्थानीय लोगों की राय, जनअपेक्षाओं और उम्मीदवारों की योग्यता के आधार पर करती हैं, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। यहां पार्टियां नेताओं की परिवारवादी राजनीतिक परम्परा, उनके जातीय आधार, बाहुबल, धनबल, धार्मिक एवं साम्प्रदायिक आधार पर उम्मीदवारों का चयन करती हैं, जिससे भारत में लोकतांत्रिक मूल्य दिनोंदिन कमजोर होते जा रहे हैं।
कभी-कभी लगता है समय का पहिया तेजी से चल रहा है जिस प्रकार से घटनाक्रम चल रहा है, वह और भी इस आभास की पुष्टि करा देता है। पर समय की गति न तेज होती है, न रुकती है। हां चुनाव घोषित हो जाने से तथा प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने से जो क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं हो रही हैं उसने ही सबके दिमागों में सोच की एक तेजी ला दी है। प्रत्याशियों के चयन व मतदाताओं को रिझाने के कार्य में तेजी आ गई है, लेकिन जनता से जुड़े जरूरी मुद्दों पर एक गहरा मौन पसरा है। न गरीबी मुद्दा है, न बेरोजगारी मुद्दा है। महंगाई, बढ़ता भ्रष्टाचार, बढ़ता प्रदूषण, राजनीतिक अपराधीकरण, आतंकवाद, युद्ध, कोरोना महामारी जैसे ज्वलंत मुद्दे नदारद हैं।
पांच राज्यों के रचाए जा रहे मतदान का पवित्र कार्य सन्निकट है। परम आवश्यक है कि सर्वप्रथम राष्ट्रीय वातावरण अनुकूल बने। देश ने साम्प्रदायिकता, आतंकवाद तथा घोटालों के जंगल में एक लम्बा सफर तय किया है। उसकी मानसिकता घायल है तथा जिस विश्वास के धरातल पर उसकी सोच ठहरी हुई थी, वह भी हिली है। पुराने चेहरों पर उसका विश्वास नहीं रहा। अब प्रत्याशियों का चयन कुछ उसूलांे के आधार पर होना चाहिए न कि जाति और जीतने की निश्चितता के आधार पर। मतदाता की मानसिकता में जो बदलाव अनुभव किया जा रहा है उसमें सूझबूझ की परिपक्वता दिखाई दे रही है लेकिन फिर भी अनपढ़ एवं ग्रामीण मतदाता आज भी जातीय, धार्मिक और वर्गीय आधार पर सोचता है और अक्सर उसी आधार पर वोट देता है। हालांकि उसकी उम्मीद यह होती है कि उसके चुने हुए प्रतिनिधि उसकी जाति, मजहब और वर्ग के लिए काम करने के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं को भी बेहतर बनाएं। वास्तव में होता इसके विपरीत है। चूंकि मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग योग्यता और व्यापक जनहित के मुद्दे पर नहीं करता, इसलिए न उसकी जाति, मजहब और वर्ग का कुछ भला हो पाता है और न ही उसके जीवन स्तर में कोई उल्लेखनीय सुधार आता है, विकास तो बहुत पीछे रह जाता है।
राजनीति के मंच पर राष्ट्रीयता एवं भारत के गौरव को मजबूती देने वाले उम्मीदवारों का अभाव है जो भ्रम-विभ्रम से देश को उबार सके। बुजुर्ग नेतृत्व पर विश्वास टूट रहा है, नए पर जम नहीं रहा है। इसलिए अभी समय है जब देश के बुद्धिजीवी वर्ग को सैद्धांतिक बहस शुरू करनी चाहिए कि कैसे ईमानदार, आधुनिक सोच, नये भारत को निर्मित करने वाले और कल्याणकारी दृष्टिकोण वाले प्रतिनिधियों का चयन हो सके। चुनाव के प्रारंभ में जो घटनाएं हो रही हैं वे शुभ का संकेत नहीं दे रही हैं। बड़ी संख्या में बदबदल, सत्ता पाने की लालसा एवं राजनीतिक सत्ता एवं स्वार्थों की जुगाड़- ये काफी कुछ बोल रही हैं। मतदाता भी  धर्म संकट में है। उसके सामने अपना प्रतिनिधि चुनने का विकल्प नहीं होता। प्रत्याशियों में कोई योग्य नहीं हो तो मतदाता चयन में मजबूरी महसूस करते हैं। मत का प्रयोग न करें या न करने का कहें तो वह संविधान में प्रदत्त अधिकारों से वंचित होना/करना है, जो न्यायोचित नहीं है।
सब दल और उनके नेता सत्ता तक येन-केन-प्रकारेण पहुंचना चाहते हैं, लेकिन जनता को लुभाने के लिये उनके पास बुनियादी मुद्दों का अकाल है। जबकि व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र अनेक समस्याओं से घिरा है, लेकिन इन समस्याओं की ओर किसी भी राजनेता का ध्यान नहीं है। बेरोजगारी एक विकट समस्या है, कोरोना महामारी ने यह समस्या और विकराल कर दी है, उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड बेरोजगारी के मामले में आगे हैं। पार्टियां रिक्त सरकारी पदों को भरकर लाखों नई सरकारी नौकरियों का वादा करेंगी, पर क्या कारोबार और निजी उद्यमों को बढ़ाए बिना केवल सरकारी नौकरियों के सहारे करोड़ों लोगों को रोजगार दिया जा सकता है? क्या सरकारी नौकरियां ही रोजगार हैं? क्या आप अपने कारोबार में किसी को उसकी उत्पादकता की परवाह किए बिना नौकरी पर रखना चाहेंगे? मगर सरकारी नौकरियों में यही होता है। क्या यह आपके करों के पैसे का सही उपयोग है? जनता के मतों का ही नहीं, उनकी मेहनत की कमाई पर लगे करोें का भी जमकर दुरुपयोग हो रहा है। राजनेताओं द्वारा चुनाव के दौरान मुफ्त बांटने की संस्कृति ने जन-धन के दुरुपयोग का एक और रास्ता खोल दिया है।
हमारे चुनावी लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि बुनियादी मुद्दों की चुनावों में कोई चर्चा ही नहीं होती। मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त चिकित्सा, किसानों एवं महिलाओं के खातों में नगद सहायता पहुंचाने से लेकर कितनी तरह से मतदाता को लुभाने एवं लूटने के प्रयास होते हैं। न हवा शुद्ध, न पानी शुद्ध- इनके कारणों की कोई चर्चा नहीं। इसी तरह सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी दयनीय कर दी गई है कि हर कोई कर्ज लेकर भी बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना चाहता है। सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को प्राइवेट स्कूलों के अध्यापकों से कई गुना वेतन, छुट्टियां और सुविधाएं मिलती हैं, लेकिन क्या वे प्राइवेट स्कूलों के अध्यापकों से कई गुना बेहतर शिक्षा देते हैं? यही हाल हमारी चिकित्सा का है। डिस्पेंसरियों, अस्पतालों और सफाई संस्थानों में जो धांधलियां हैं, उसके जिम्मेदार कौन है? क्या कोई उन्हें सुधारने की समयबद्ध योजना की बात करता है? आजादी का अमृत महोेत्सव मनाते हुए हमने क्या सोचा है कि हमारी इन दुर्दशा के कारण क्या है? क्या चुनाव में इन मुद्दों पर चर्चा होती है? क्या कोई बाबुओं और नौकरों की फौज पैदा करने वाली बेकार शिक्षा प्रणाली को सुधारने, निजी कारोबारों और रोजगार देने वाले उद्यमों के लिए सुरक्षित वातावरण तैयार करने की बात करता है? कभी सोचा है, क्यों नहीं? क्योंकि चुनाव राष्ट्र को सशक्त बनाने का नहीं बल्कि अपनी जेबें भरने का जरिया बन गया है।
इस बार की लड़ाई कई दलों के लिए आरपार की है। ”अभी नहीं तो कभी नहीं।“ इन पांच राज्यों की राजधानियों के सिंहासन को छूने के लिए सबके हाथों में खुजली आ रही है। उन्हें केवल चुनाव जीतने की चिन्ता है, अगली पीढ़ी की नहीं। मतदाताओं के पवित्र मत को पाने के लिए पवित्र प्रयास की सीमा लांघ रहे हैं। यह त्रासदी बुरे लोगों की चीत्कार नहीं है, भले लोगों की चुप्पी है जिसका नतीजा राष्ट्र भुगत रहा है/भुगतता रहेगा, जब तब भले लोग मुखर नहीं होगे। क्योंकि पार्टियां और उम्मीदवार विकास करने, समता एवं सौहार्दमूलक समाज बनाने, नया भारत निर्मित करने और जाति, मजहब और वर्गों के आधार पर चले आ रहे विभाजन को पाटने के बजाय लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ उकसाने, धर्म एवं जाति के आधार पर नफरत एवं द्वेष की दीवारे खिंचने, असुरक्षा की भावना पैदा करने और अपना राजनीतिक भविष्य सुनिश्चित करने की जुगत में रहते हैं। इन जटिल एवं ज्वलंत हालातों में किस तरह लोकतंत्र मजबूत होगा? चुनाव आयोग के निर्देश, आदेश व व्यवस्थाएं प्रशंसनीय हैं, पर पर्याप्त नहीं हैं। इसमें मतदाता की जागरूकता, संकल्प और विवेक ही प्रभावी भूमिका अदा करेंगे। क्योंकि चयन का विकल्प लापता/गुम है। उसकी खोज लगता है अभी प्रतीक्षा कराएगी। वह चुनाव आयोग नहीं दे सकता।